बारिश कहती है..

         प्रस्तुत कविता हर साल बारिश के दिनों में देश और दुनिया में बाढ़ से हो रहे परेशानियों पर एक कटाक्ष है। इन सबके पीछे कही ना कही मानव समाज ही दोषी है। हर साल जंगलों का कम होना और विकास की होड़ में प्रकृति से खिलवाड़ करने का नतीजा ही है कि प्रकृति किसी ना किसी रूप में अपना हिसाब बराबर कर ही लेती है। यदि इस कविता में लिखी बातों से आप सहमत हों , तो कृपया इसे और लोगों तक पहुचाइए।


बारिश कहती है ,
आ भीगा दूँ तुझे ,
तेरे तन के साथ...
मन को भी,
तर कर दूँ....
बारिश कहती है,

तू तो कहता था ,
बहुत गर्मी है आज ,
फ़िर क्यों छुपा भाग रहा ,
आ थोड़ा पानी की,
सैर करा दूँ ,तैरा दूँ तुझे ,
इस निर्मल जल में ,
बारिश कहती है,

आज तेरे मन को भर दूँ ,
तेरा रोम -रोम जलमग्न कर दूँ ,
आ जी ले जी भर कर ,
कहाँ भागा जा रहा,
बारिश कहती है,

सारे खेतों में ,नदी ,नालों ,
जल भर दूँ ,
ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान है तेरा ,
ऐ वन्दे ,
तेरे खाने-पिने का प्रबंध कर दूँ ,
बारिश कहती है ,

तूने जो कुकर्म किया ,
धरती माँ को इतना गर्म किया ,
पेड़ों को तूने काट दिया ,
टुकड़ो -टुकड़ो में बाँट दिया,
आ फ़िर से इसे एक कर दूँ ,
बारिश कहती है,

तू शायद भूल गया ,
अपनी औकात ,
लाँघ गया सीमा को अपने ,
घने जंगलो को शहर बनाया  ,
गंगा मइया को नाला ,
ये तूने ठीक ना किया
बारिश कहती है,

आ प्रण ले  इस साल ,
लगाएगा पेड़ हर साल ,
ना करेगा गंदा नदियों को ,
बनाएगा एक मिसाल ,
प्रकृति है.....  तो तू है.
नहीं खेलेगा इससे ऐ इंसान ,
बारिश कहती है...






आपका ,
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