ये कहानी खाश तौर से पुर्वी UP और बिहार उन छात्रों की है जो देखा-देखी B-Tech की डिग्री के लिये कोई भी कालेज में दाखिला ले लेते है। और उसके बाद घर बैठ कर सरकारों को कोसते है। चिंन्टूआ से इंजिनियर चितरंजन प्रसाद बनने का सफ़र कैसा रहा और कैसे ये बेरोज़गारी के ब्रांड एंबासडर बन गये , इस कहानी में आपको बताऊगा.
ये कहानी सन 2000 में शुरू होती है। ज़िला गाजिपुर के एक छोटे से गाँव में रहने वाला चिन्टूआ दसवी कक्षा में था। बाबू जी किसान थे , अच्छी खाशी खेती थी। भैया आर्मी में थे , परिवार में सम्पन्न्ता थी। मिडिल स्कूल के बाद कस्बा के एक नामी सरकारी स्कूल में एड्मिशन ले लिया। क्षेत्रिय प्रतिभा खोज में अव्वल आने से चिन्टूआ का काफ़ी धाक था गाँव में। सरकारी स्कूल में आने के बाद वहाँ चिन्टूआ की मुलाक़ात मोहन से हुई। मोहन काफ़ी गंभीर लड़का था और पढने में बहुत तेज़ था। परंतु उसकी पारिवारिक स्थिति ठीक नही थी। दोनों धीरे -धीरे दोस्त बन गये और कक्षा में एक साथ बैठने लगे। दोनों में एक मूल अंतर था एक तरफ़ चिन्टूआ मस्तमौला, हमेशा फैशन वाला कपड़े पहन के स्कूल आता था और वही मोहन सीधा -सादा अपनी पढाई में मगन रहता था।
चिन्टूआ घर पर पढने का आदि नही था। एक दिन उसके बाबू जी उससे पूछे "अरे चिन्टूआ दिन भर घूमत बाडे पढाई में मन तोरा लागत नईखे, आगे जा के गोबर फेकबे का रे? जो जा के गहमर में आर्मी के भर्ती होता उहाँ लाइन लगाव" . ये कहते हुए बाबूजी खेत की तरफ़ चले गये। जाने से पहले चिन्टूआ बाबूजी से बोला "ज़िंदगी भर त खेती कईला तोहरा का बुझाई हम का चीज़ हई। पूरा कस्बा के टापर बानी। सेना-वेना हमके नाही जायेके बा। इंटर के बाद एम एल एन आर (MLNR) से पढके इंजिनियर बने के बा"
बाबूजी को उसकी बात समझ नही आया और धुन में आगे बढते चले गये। और उन्होंने सोचा की चिन्टूआ आगे पढना चाहता है। दिन बितता रहा दो साल बाद इंटर का बोर्ड परीक्षा आ गया। एक तरफ़ मोहन पूरे मेहनत से पढाई कर रहा था और दूसरी तरफ़ चिन्टूआ अपने धुन में रमा हुआ था। परीक्षा का दिन नज़दीक आ गया और क्षेत्रिय कोचिंगो में मानो ज्ञान की गंगा बरसने लगी हो , क्षेत्र का हर बच्चा इस गंगा में डूबकी लगाने को आतुर था क्योंकि पूरे साल बिना पढे और पूर्व में फ़ेल छात्रों को 1st डिविजन में पास कराने का ठेका जो इन कोचिंग संस्थाओ ने ले रखा था। किसी अनहोनी की आशंका में चिन्टूआ कोचिंग में एड्मिशन ले लिया। उधर मोहन इंटर के साथ MLNR और आईआईटी की प्रवेश परीक्षाओं को ध्यान में रखकर पढाई कर रहा था।
इंटर का परीक्षा हो गया अब बेसब्री से रिजल्ट की प्रतीक्षा होने लगी। मोहन और चिन्टूआ दोनों ने एमएलएनआर और आईआईटी में प्रवेश का भी एक्जाम दे दिये थे। पेपर में आया की इंटर का परीक्षा परिणाम 24 मई को दिन में 12बजे घोषित होगा। चिन्टूआ और मोहन दोनों रिजल्ट के दिन सुबह से ही पेपर केन्द्र पर डेरा जमा दिये। 12बजे का टाइम था परिणाम घोषित होने का , लखनऊ में परिणाम घोषित हो गया। बनारस से पेपर छपने के बाद देर रात तक कस्बे के पेपर केन्द्र पर परीक्षा परिणाम आ गया। पेपर का हेडलाइन्स देखकर दोनों के पैरों तलों ज़मीन खिसक गया। पूरे प्रदेश में केवल 34 फिसदी छात्र ही सफ़ल हुए थे। कुछ अनहोनी की आशंका के साथ मोहन ने रोल नम्बर चेक करना शुरू किया और इस तरह से मोहन अपने कक्षा में प्रथम श्रेणी में पास होने वाला पहला छात्र था और दूसरी तरफ़ चिन्टूआ फ़ेल हो गया था। ये चिन्टूआ के लिये किसी झटके से कम ना था। वही करीब पन्द्रह दिनों बाद एमएलएनआर और आईआईटी का भी रिजल्ट आ गया मोहन दोनों ही प्रवेश परीक्षा में सफ़ल हो गया आईआईटी में अच्छे रैंक ना होने से मोहन ने एमएलएनआर ईलाहाबाद में एड्मिशन ले लिया और इंजिनियरिंग की पढाई करने चला गया।
और इधर चिन्टूआ को कुछ समझ नही आ रहा था कि क्या करें और क्या ना करें। ऐसे में हमारे यहाँ के कुछ इलाहाबाद और दिल्ली रिटर्न 30-35 साल के युवा बुजुर्ग उसको जीवन में सफल होने का मुलमंत्र बताते है। 'गौर करियेगा ये वो युवा बुजुर्ग है जो खुद के सफ़ल होने की लडाई लड़कर इलाहाबाद और दिल्ली से लौट चुके होते है। चिन्टूआ को मंत्र मिला कि वो इलाहाबाद चला जाये और अपने जिला का परंपरा निभाते हुए कंपटिशन की तैयारी करें।
भरे मन से चिन्टूआ के बाबूजी उसे इलाहबाद भेज दिये और साथ में एक महीने का राशन भी बोरी में भरकर भेज दिये। जाने से पहले बाबूजी बोले " ए बेटा मन लगाके पढाई करिह , और टाइम से खाना-वाना खा लिहअ". जाते ही चिन्टूआ एक नामी कोचिंग सेन्टर में एड्मिशन ले लिया और शुरू के एक-दो महीना मन से पढाई किया। धीरे -धीरे उसे शहर का हवा लगने लगा। खर्चे भी बढ गया था। उमर के हिसाब से आशिकी भी दिलों -दिमाग पर हावी होने लगी थी । देखते -देखते एक साल बित गया और एक बार फिर चिन्टूआ इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में फेल हो गया। अब तो फेल होने पर चिन्टुआ को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था। इलाहबाद में नुक्कड़ों पर चाय पर चर्चा के दौरान उसे एक और सिख मिली कि सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रवेश परीक्षा में फेल होना कोई बड़ी बात नहीं है।वहाँ जिला के ही एक युवा बुजुर्ग ने उसे बताया "अरे बबुआ डिगिरिये न करना है... सरकारी से करअ चाहे प्राइवेट से। बतिया तअ एके बा न। तनि पइसवा प्राइवेटवा में ढेर लागे ला लेकिन नोकरिया तअ जल्दी मिल जाई न "
ये मंत्र चिन्टुआ को भा गया। इंटर पास होने के बाद ये तीसरा साल था ,बाबूजी से कहानी बताकर क़रीब 50000 हज़ार डोनेशन देकर चिन्टुआ एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला ले लिया। और इंजीनियरिंग की पढाई करने लगा। उधर मोहन MLNR से इंजीनियरिंग के अंतिम साल में था और उसका एक बड़े कंपनी में प्लेसमेंट भी हो गया था। धीरे -धीरे मोहन अपनी ज़िन्दगी के कठीन पक्ष से बाहर निकल गया और एक अच्छा जीवन व्यतीत करने लगा। उधर चिन्टुआ का हर सेमेस्टर में कोई ना पेपर बैक लग जाता था। करते -करते चार साल गुजर गए लेकिन चिन्टुआ का डिग्री अभी पूरा नहीं हुआ था। आख़िरकार पांचवें साल में उसने इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी कर ली। चिन्टुआ का ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। उसके बाबूजी पुरे गांव में मिठाई बटवां दिए क्योंकी उनका चिन्टुआ अब इंजीनियर चितरंजन प्रसाद बन गया था।
अब चिन्टुआ को चिन्टुआ कहने से बुरा लगता था। वह अपने घर के आगे नेम प्लेट लगवा दिया जिसमे लिखा था "इंजीनियर चितरंजन प्रसाद , बी टेक FROM इलाहाबाद। "
डिग्री के दो साल होने को था चिन्टुआ को कहीं से भी कोई जॉब ऑफर नहीं था। धीरे -धीरे उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था। अब वह इलाहाबाद छोड़ने का मूड बनाकर वापस अपने गांव आ गया। गांव आ कर वह अपने बाबूजी के काम में हाथ बटाने लगा। ये बदलाव देखकर उसके बाबूजी ने उससे पूछा "अब का खेतीए करेके बा आगे , एतना पैसा खर्चा करके तोहके पढ़ैली - लिखैली इहे काम करेके ख़ातिर ?" ये सुनकर चिन्टुआ के आँख में आंसू आ गया और वो बोला "बाबूजी हमरा से बहुत बड़ गलती हो गइल , दूसरा के देखा -देखी काम ना करेके चाहि , हम यदि तोहार बात मान गइल रहती तअ हमहुँ भैया के संगे आर्मी में भरती हो गइल रहती "
आज हमारे समाज में इस तरह के ढेर सारे चिन्टुआ है। ज़रूरी है की उन्हें सही समय पर जगाया जाये ,इससे पहले की लेट हो जाये। समाज में देखा -देखी कैरियर बनाने का एक चलन हो गया , ये जाने बिना की छात्र के जीवन पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा। उसका झुकाव किस तरफ़ है , किस फिल्ड में उसे आगे बढ़ने का प्लान है। अपने बच्चों को क्या करना है उन्हें गाइड करिये और हमेशा उनके ग्रोथ का परिक्षण करते रहिये। कब आपका बच्चा इतना बड़ा हो जाये की वो चिन्टुआ की तरह अपनी ज़िन्दगी ज़ीने लगे इसकी भनक आपको नहीं लगेगी और फिर पछताने के सिवा कुछ नहीं बचेगा।
हमारे समाज में चिन्टुआ भी है और मोहन भी। पहचानने की ज़रूरत है और उसके हिसाब से
जीवन को मोल्ड करने की कोशिश करते रहना चाहिए।
उपर्युक्त कहानी मैंने मेरे कुछ अपने अनुभव और कल्पना के आधार पर लिखी है। कहानी के भाव को समझते हुए भाषा में कुछ भोजपुरी शब्दों का प्रयोग किया है जिससे आसानी से देसी तरीके से मै अपनी बात उन लोगों तक पंहुचा पाऊ। कोशिश है मेरी जितना हो सके जो मैंने महसूस किया है अपने अभी तक के जीवन में उसे लोगों को बता सकूँ। इस लेख से यदि एक भी चिन्टुआ, मोहन बनने की राह पकड़ लेता है तो मेरी लेखनी सफ़ल है। कृपया जनहित में इसे शेयर करें।
आपका ,
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ये मंत्र चिन्टुआ को भा गया। इंटर पास होने के बाद ये तीसरा साल था ,बाबूजी से कहानी बताकर क़रीब 50000 हज़ार डोनेशन देकर चिन्टुआ एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला ले लिया। और इंजीनियरिंग की पढाई करने लगा। उधर मोहन MLNR से इंजीनियरिंग के अंतिम साल में था और उसका एक बड़े कंपनी में प्लेसमेंट भी हो गया था। धीरे -धीरे मोहन अपनी ज़िन्दगी के कठीन पक्ष से बाहर निकल गया और एक अच्छा जीवन व्यतीत करने लगा। उधर चिन्टुआ का हर सेमेस्टर में कोई ना पेपर बैक लग जाता था। करते -करते चार साल गुजर गए लेकिन चिन्टुआ का डिग्री अभी पूरा नहीं हुआ था। आख़िरकार पांचवें साल में उसने इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी कर ली। चिन्टुआ का ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। उसके बाबूजी पुरे गांव में मिठाई बटवां दिए क्योंकी उनका चिन्टुआ अब इंजीनियर चितरंजन प्रसाद बन गया था।
अब चिन्टुआ को चिन्टुआ कहने से बुरा लगता था। वह अपने घर के आगे नेम प्लेट लगवा दिया जिसमे लिखा था "इंजीनियर चितरंजन प्रसाद , बी टेक FROM इलाहाबाद। "
डिग्री के दो साल होने को था चिन्टुआ को कहीं से भी कोई जॉब ऑफर नहीं था। धीरे -धीरे उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था। अब वह इलाहाबाद छोड़ने का मूड बनाकर वापस अपने गांव आ गया। गांव आ कर वह अपने बाबूजी के काम में हाथ बटाने लगा। ये बदलाव देखकर उसके बाबूजी ने उससे पूछा "अब का खेतीए करेके बा आगे , एतना पैसा खर्चा करके तोहके पढ़ैली - लिखैली इहे काम करेके ख़ातिर ?" ये सुनकर चिन्टुआ के आँख में आंसू आ गया और वो बोला "बाबूजी हमरा से बहुत बड़ गलती हो गइल , दूसरा के देखा -देखी काम ना करेके चाहि , हम यदि तोहार बात मान गइल रहती तअ हमहुँ भैया के संगे आर्मी में भरती हो गइल रहती "
आज हमारे समाज में इस तरह के ढेर सारे चिन्टुआ है। ज़रूरी है की उन्हें सही समय पर जगाया जाये ,इससे पहले की लेट हो जाये। समाज में देखा -देखी कैरियर बनाने का एक चलन हो गया , ये जाने बिना की छात्र के जीवन पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा। उसका झुकाव किस तरफ़ है , किस फिल्ड में उसे आगे बढ़ने का प्लान है। अपने बच्चों को क्या करना है उन्हें गाइड करिये और हमेशा उनके ग्रोथ का परिक्षण करते रहिये। कब आपका बच्चा इतना बड़ा हो जाये की वो चिन्टुआ की तरह अपनी ज़िन्दगी ज़ीने लगे इसकी भनक आपको नहीं लगेगी और फिर पछताने के सिवा कुछ नहीं बचेगा।
हमारे समाज में चिन्टुआ भी है और मोहन भी। पहचानने की ज़रूरत है और उसके हिसाब से
जीवन को मोल्ड करने की कोशिश करते रहना चाहिए।
उपर्युक्त कहानी मैंने मेरे कुछ अपने अनुभव और कल्पना के आधार पर लिखी है। कहानी के भाव को समझते हुए भाषा में कुछ भोजपुरी शब्दों का प्रयोग किया है जिससे आसानी से देसी तरीके से मै अपनी बात उन लोगों तक पंहुचा पाऊ। कोशिश है मेरी जितना हो सके जो मैंने महसूस किया है अपने अभी तक के जीवन में उसे लोगों को बता सकूँ। इस लेख से यदि एक भी चिन्टुआ, मोहन बनने की राह पकड़ लेता है तो मेरी लेखनी सफ़ल है। कृपया जनहित में इसे शेयर करें।
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