मेरी हदें...

कोई मेरे हदें बता दे..
कहाँ तक जाना है मुझे ,
ये जता दे,
मै तो मसाफ़िर हूँ,
चलना मेरी आदत है ,
हसरतों की लिस्ट ज़रा लंबी है ,
एक -एक कर पाने की ,
ख्वाईश रखता हूँ,
करता रहुँगा कोशिशें लगातार,
जब तक ना कोई मेरे हदें बता दे,
एक छलाँग मारना है मुझे ,
बस सही मौके की तलाश है ,
हमे दिखानी है दुनिया को ,
आखिर मेरी हदें क्या है .....
छू  लेता आसमां को ,
गर कुछ मज़बूरियाँ ना होती ,
इरादे नेक रखता हूँ,
कही ये मेरी कमज़ोरी तो नही ?
ख़ुदा के घर में देर है ,
अंधेर नहीं  ,
ऐसा लोग कहते है ,
कही ये देरी,
मेरे सब्र की इम्तहा तो नहीं ?





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"सफ़लता-एक रहस्य" और ज़िंदगी

"सफ़लता-एक रहस्य" और ज़िंदगी  ,एक ऐसा विषय जो हर व्यक्ति से जुड़ा हुआ है।  जब आप छोटे होते है, उस समय सफ़लता का मतलब होता है कक्षा में अच्छे नंबरों से पास होना। दसवीं-बारहवीं आते -आते सफ़लता की एक नई परिभाषा बता दी जाती है और वो होती है देश के नामी संस्थान में एड्मिशन प्राप्त करने की।  ग्रेजुएशन करने के दौरान आपको ये एहसास कराया जाता है कि अभी तो आपके सफ़ल होने की कहानी शुरू ही हुई है और फ़िर आप भिड़ जाते हो भिन्न -भिन्न क्षेत्रों में नौकरी पाने की तलाश में।  प्रोफेशनल लाइफ शुरू करते ही आपको लगेगा कि आप सफ़ल हो गये। लेकिन ये आपको शुरू के दो -तीन साल ही लगेंगे।  उसके बाद एक जंग शुरू होती है छल, कपट , धोखा , विरोध से लड़ते हुए अपने अस्तित्व को बचाने की और आगे बढने की।  ज़िंदगी की असली जंग अब शुरू होती है। कभी आपको लगेगा कि आप सफ़ल हो गये, कभी लगेगा विफ़ल हो गये। कुछ दिन सफ़लता का सुख भोगने के बाद आपको लगेगा,आपकी मंज़िल ये नही है। फ़िर आपको लगेगा कही मै विफ़ल तो नही हो गया ? और इसी बीच आप सामाजिक और पारीवारिक जिम्मेदारीयों के बोझ तले अपने आप को दबा हुआ पायेगे।  और यहाँ फ़िर से सफ़लता की एक नई रेखा खिची जायेगी। और फ़िर आप निकल पड़ोगे कभी ना खतम होने वाली यात्रा पर। हर मोड़ पर आपको एक नई लकीर खींचनी होगी और उसे पाने की कोशिश करनी होगी। यही ज़िंदगी है। 
        इसीलिए मैने शीर्षक "सफ़लता-एक रहस्य"और ज़िंदगी रखा क्योंकि मुझे लगता है कि सफ़लता की परिभाषा जीवन के हर मोड़ पर अलग - अलग होता है और ये ऐसी अंतहीन यात्रा है जो जीवनपर्यन्त चलती रहती है। 




कुछ पंक्तियां ज़िंदगी के नाम:

ज़ि लो दोस्त थोडा अपने लिये भी,
ये तो रोज़ चलने वाली यात्रा है ,
क्यों इतना भाग रहे हो ?
थोडा आराम भी कर लो यार ,

बचपन से ही कुछ तलाश में हो ,
क्या पाना चाहते हो ?
क्या कभी सोचा तूने,
कितनों को खो दिया इस होड़ में ?

जब भी तुम कुछ पाते हो,
साथ में कुछ खोतें भी हो,
क्या कभी गौर किया तूने ?
तूने खुद को ही खो दिया कहीं,

आ जाओ फ़िर से मिला दूँ ,
तुझे तुम्ही से,
एक बार फ़िर ,
अपने लिये भी
जीना सिखा दूँ तुझे ,

जीवन के हर मोड़ पर ,
खींचनी होगी,
एक नई लक़िर,
यही दस्तुर है हमारा,

थोडा खुश होकर ,
फ़िर अगली मंज़िल की तरफ़,
चलना होगा,
यही तो ज़िंदगी है,

चलते रहना है लगातार ,
बीच-बीच में 
अपने लिये भी जीना है,
खुद से खुद को,
मिलाते रहना है,

जीवन में हमेशा एक नई,
इबारत लिखते रहना है,
थोड़ा रुक कर , 
फिर चलना है
यही तो ज़िंदगी है,



आपका,
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नाग पंचमी

जब हमलोग अपने गाँव में रहते थे उस समय नाग पंचमी से कुछ दिन पहले से ही स्कूल के प्रांगण में बने आखाँडे में कुश्ती का प्रैक्टिस शुरू हो जाती थी. गाँव के कुछ होनहार लड़के बडे मज़े से मिट्टी मे को अपने पूरे शरीर पर मलते थे. शाम को रोज़ एक बार मैदान में जाना हो ही जाता था.अक्सर पैरों में चोट लग जाती थी और कही ना कही छिल जाना आम था. चारों तरफ़ खेतों में धान की बुआई अपने चरम पर रहता था. बडे लोग हमे बताते थे नाग पंचमी के दिन से त्योंहारों की शुरुवात होती है .

            नागपंचमी के दिन पुरा गाँव ही स्कूल के मैदान में एकत्रित होता था.पुरी विधि -विधान से कुश्ती का कार्यक्रम आयोजित होता था, उसके बाद कबड्डी. प्रसाद वितरण के बाद प्रोग्राम का समापन होता था.

            आज बहुत दिन हो गये इस तरह के आयोजन का हिस्सा बने हुए , पर आज भी बचपन की वो सारी यादें किसी फ़िल्म तरह दिलों-दिमाग में चलती रहती है.

           ये हमारी परंपरा है जो हमे भूलनी नही चाहिये. ये हमें बहुत कुछ सिखाती भी है . आप सभी को 'नाग पंचमी' की हार्दिक शुभकामनाए.

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कलाम - शत शत नमन

             आज से ठीक दो साल पहले मै अपने छोटे भाई के साथ एडमिशन के सिलसिले में दक्षिण भारत, तेलंगाना के यात्रा पर था। ट्रेन में सफ़र के दौरान एक ऐसी खबर मिली जिसने मेरी अंतरात्मा को हिला के रख दिया। ख़बर था हमारे पूर्व राष्ट्रपती, वैज्ञानिक और शिक्षक Dr. ए पी जे अब्दुल कलाम का एक लेक्चर के दौरान आकस्मिक निधन।
         कलाम साहब  के बारे में सबसे पहले जानकारी मुझे सन 1999 में मेरे प्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेई के द्वारा किये गए द्वितीय पोखरण परमाणु परीक्षण के दौरान मिला। एक ऐसा शक्श जिसने एक अजीब सा हेयर स्टाइल बना रखा था , जो अपने आप में एक यूनिक था। उनको मिसाइल मैन की तमगा ऐसे ही नहीं मिला , उनके ही लीडरशिप में ही भारत ने अग्नि और पृथ्वी नाम के मिसाइल का परीक्षण करके दुनिया को भारत की शक्ति दिखाई।
             एक ऐसा शख्स जिसकी सादगी ,अनुशासन ,काम के प्रति समर्पण और राष्ट्रवादी सोच ने देश में इतना लोकप्रिय हुआ कि तत्कालीन कोई भी नेता ,अभिनेता या खिलाडी उनके सामने कुछ नहीं था। हमारी जेनेरशन ने कभी गांधी ,मदन मोहन मालवीय ,पटेल , बोस आदि महापुरुषों को जीवित नहीं देखा है परन्तु एक बात मै दावे के साथ कह सकता हूँ वो ज़रूर कलाम जैसे विचार रखते होंगे।
               एक ग़रीब मुस्लिम परिवार में जन्मा एक लड़का अख़बार बेच कर अपनी पढाई पूरा करके, इंजीनियर और वैज्ञानिक बनकर देश को मिसाइल और परमाणु सम्पन्न बनाता है और यही नहीं गीता और कुरान दोनों  पढ़कर देश का राष्ट्रपति भी बन जाता है।धर्मनिर्पेक्षता का सही अध्ययन करना हो तो कलाम साहब की जीवनी एक बार अवश्य पढनी चाहिए. देश के इतिहास में सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रपती अब्दुल कलाम ही थे.
          ये अद्भुत और अविश्वसनीय है कि उन्होंने अपने  जीवन के आखिरी क्षण तक अपने कर्म में लगे रहे और उनका देहांत भी एक सभागार में लेक्चर के दौरान ही हुआ . 
        आज उनके जैसा व्यक्ति नही मिलता है , अभी के समय में कलाम साहब के आदर्शों पर चलने की ज़रूरत है . आज उनके पुण्यतिथि पर शत शत नमन.
एक संक्षिप्त जीवन परिचय :
नाम: अबुल पाकिर जैनूल अबिदिन अब्दुल कलाम (Dr ए पी जे अब्दुल कलाम)
उपनाम: मिसाईल मैन
जन्म: 15 Oct 1931
जन्मस्थान: रामेश्वरम , तमिलनाडू
शिक्षा: इंजिनियरिंग 
पेशा: वैज्ञानिक
उप्लब्धि: राष्ट्रपति (भारत)
मृत्यु : 27 July 2015
मृत्यु स्थान: शिलांग


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राजनीति

एक बार फ़िर नितिश कुमार ने अपने अंतरात्मा की आवाज़ पर लालू को छोड़कर अपने पुराने साथी सुशील मोदी के साथ हो लिये. क्या ये घटनाक्रम फिक्स था ? राजनीति में एक चीज़ ही फिक्स होती है वो है कुर्सी . जो भी व्यक्ति सत्ता पाने में सफ़ल हो जाता है और साथ ही साथ अपना चेहरा भी दागदार होने से बचा लेता है वही सबसे बडा राजनीतिज्ञ है . नितिश ये सब करने में माहिर है और उन्होंने ये कई बार साबित भी किया है .

            सही क्या गलत क्या है ये सब आप चर्चा करते रहीये. मैंने इससे पहले अपने पूर्व के लेखों में पहले ही बताया है .

“Nothing is right or wrong it’s state of mind” only.

अच्छा मसाला है न्यूज चैनलों के लिये ,अगला 15-20 दिन तो निकल ही जायेगा जब तक कि कोई नया मुद्दा ना मिल जाए.


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बारिश कहती है..

         प्रस्तुत कविता हर साल बारिश के दिनों में देश और दुनिया में बाढ़ से हो रहे परेशानियों पर एक कटाक्ष है। इन सबके पीछे कही ना कही मानव समाज ही दोषी है। हर साल जंगलों का कम होना और विकास की होड़ में प्रकृति से खिलवाड़ करने का नतीजा ही है कि प्रकृति किसी ना किसी रूप में अपना हिसाब बराबर कर ही लेती है। यदि इस कविता में लिखी बातों से आप सहमत हों , तो कृपया इसे और लोगों तक पहुचाइए।


बारिश कहती है ,
आ भीगा दूँ तुझे ,
तेरे तन के साथ...
मन को भी,
तर कर दूँ....
बारिश कहती है,

तू तो कहता था ,
बहुत गर्मी है आज ,
फ़िर क्यों छुपा भाग रहा ,
आ थोड़ा पानी की,
सैर करा दूँ ,तैरा दूँ तुझे ,
इस निर्मल जल में ,
बारिश कहती है,

आज तेरे मन को भर दूँ ,
तेरा रोम -रोम जलमग्न कर दूँ ,
आ जी ले जी भर कर ,
कहाँ भागा जा रहा,
बारिश कहती है,

सारे खेतों में ,नदी ,नालों ,
जल भर दूँ ,
ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान है तेरा ,
ऐ वन्दे ,
तेरे खाने-पिने का प्रबंध कर दूँ ,
बारिश कहती है ,

तूने जो कुकर्म किया ,
धरती माँ को इतना गर्म किया ,
पेड़ों को तूने काट दिया ,
टुकड़ो -टुकड़ो में बाँट दिया,
आ फ़िर से इसे एक कर दूँ ,
बारिश कहती है,

तू शायद भूल गया ,
अपनी औकात ,
लाँघ गया सीमा को अपने ,
घने जंगलो को शहर बनाया  ,
गंगा मइया को नाला ,
ये तूने ठीक ना किया
बारिश कहती है,

आ प्रण ले  इस साल ,
लगाएगा पेड़ हर साल ,
ना करेगा गंदा नदियों को ,
बनाएगा एक मिसाल ,
प्रकृति है.....  तो तू है.
नहीं खेलेगा इससे ऐ इंसान ,
बारिश कहती है...






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वो कहते है...

वो कहते है कि गलत ,
मै कहता हूँ की सही,
सही क्या है ,
ये कौन बताए,
कोई तो जज़ होगा ,
जो निर्णय देगा ,
वैसे तो सब सही है
और सब गलत,
बस नज़रीये की बात है ,
इसलिए परखना हो ,
सही-गलत तो
नज़रीया बदलीये ,
मुद्दा नही,




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चिन्टूआ के इंजिनियर बनने की कहानी

            ये कहानी खाश तौर से पुर्वी UP और बिहार उन छात्रों की है जो देखा-देखी B-Tech की डिग्री के लिये कोई भी कालेज में दाखिला ले लेते है। और उसके बाद घर बैठ कर सरकारों को कोसते है।  चिंन्टूआ से इंजिनियर चितरंजन प्रसाद बनने का सफ़र कैसा रहा और कैसे ये बेरोज़गारी के ब्रांड एंबासडर बन गये , इस कहानी में आपको बताऊगा.
            ये कहानी सन 2000 में शुरू होती है। ज़िला गाजिपुर के एक छोटे से गाँव में रहने वाला चिन्टूआ दसवी कक्षा में था।  बाबू जी किसान थे , अच्छी खाशी खेती थी।  भैया आर्मी में थे , परिवार में सम्पन्न्ता थी।  मिडिल स्कूल के बाद कस्बा के  एक नामी सरकारी स्कूल में एड्मिशन ले लिया।  क्षेत्रिय प्रतिभा खोज में अव्वल आने से चिन्टूआ का काफ़ी धाक था गाँव में।  सरकारी स्कूल में आने के बाद वहाँ चिन्टूआ  की मुलाक़ात मोहन से हुई।  मोहन काफ़ी गंभीर लड़का था और पढने में बहुत तेज़ था।  परंतु उसकी पारिवारिक स्थिति ठीक नही थी। दोनों धीरे -धीरे दोस्त बन गये और कक्षा में एक साथ बैठने लगे।  दोनों में एक मूल अंतर था एक तरफ़ चिन्टूआ मस्तमौला, हमेशा फैशन वाला कपड़े पहन के स्कूल आता था और वही मोहन सीधा -सादा अपनी पढाई में मगन रहता था। 
         चिन्टूआ घर पर पढने का आदि नही था।  एक दिन उसके बाबू जी उससे पूछे "अरे चिन्टूआ दिन भर घूमत बाडे पढाई में मन तोरा लागत नईखे, आगे जा के गोबर फेकबे का रे? जो जा के गहमर में आर्मी के भर्ती होता उहाँ लाइन लगाव" . ये कहते हुए बाबूजी खेत की तरफ़ चले गये।  जाने से पहले चिन्टूआ बाबूजी से बोला "ज़िंदगी भर त खेती कईला तोहरा का बुझाई हम का चीज़ हई।  पूरा कस्बा के  टापर बानी।  सेना-वेना हमके नाही जायेके बा।  इंटर के बाद एम एल एन आर (MLNR) से पढके इंजिनियर बने के बा" 
  बाबूजी को उसकी बात समझ नही आया और धुन में आगे बढते चले गये। और उन्होंने सोचा की चिन्टूआ आगे पढना चाहता है।  दिन बितता रहा दो साल बाद इंटर का बोर्ड  परीक्षा आ गया।  एक तरफ़ मोहन पूरे मेहनत से पढाई कर रहा था और दूसरी तरफ़ चिन्टूआ अपने धुन में रमा हुआ था। परीक्षा का दिन नज़दीक आ गया और क्षेत्रिय कोचिंगो में मानो ज्ञान की गंगा बरसने लगी हो , क्षेत्र का हर बच्चा इस गंगा में डूबकी लगाने को आतुर था क्योंकि पूरे साल बिना पढे और पूर्व में  फ़ेल छात्रों को  1st डिविजन में पास कराने का ठेका जो इन कोचिंग संस्थाओ ने ले रखा था।  किसी अनहोनी की आशंका में चिन्टूआ कोचिंग में एड्मिशन ले लिया।  उधर मोहन इंटर के साथ MLNR और आईआईटी की प्रवेश परीक्षाओं को ध्यान में रखकर पढाई कर रहा था। 
          इंटर का परीक्षा हो गया अब बेसब्री से रिजल्ट की प्रतीक्षा होने लगी।  मोहन और चिन्टूआ दोनों ने एमएलएनआर और आईआईटी में प्रवेश का भी एक्जाम दे दिये थे।  पेपर में आया की इंटर का परीक्षा परिणाम 24 मई को दिन में 12बजे घोषित होगा।  चिन्टूआ और मोहन दोनों रिजल्ट के दिन सुबह से ही पेपर केन्द्र पर डेरा जमा दिये।  12बजे का टाइम था परिणाम घोषित होने का , लखनऊ में परिणाम घोषित हो गया। बनारस से पेपर छपने के बाद देर रात तक कस्बे के पेपर केन्द्र पर परीक्षा परिणाम आ गया।  पेपर का हेडलाइन्स देखकर दोनों के पैरों तलों ज़मीन खिसक गया।  पूरे प्रदेश में केवल 34 फिसदी छात्र ही सफ़ल हुए थे।  कुछ अनहोनी की आशंका के साथ  मोहन ने रोल नम्बर चेक करना शुरू किया और इस तरह से मोहन अपने कक्षा में प्रथम श्रेणी में पास होने वाला पहला छात्र था और दूसरी तरफ़ चिन्टूआ फ़ेल हो गया था।  ये चिन्टूआ के लिये किसी झटके से कम ना था।  वही करीब पन्द्रह दिनों बाद एमएलएनआर और आईआईटी का भी रिजल्ट आ गया मोहन दोनों ही प्रवेश परीक्षा में सफ़ल हो गया आईआईटी में अच्छे रैंक ना होने से मोहन ने एमएलएनआर ईलाहाबाद में एड्मिशन ले लिया और इंजिनियरिंग की पढाई करने चला गया। 
       और इधर चिन्टूआ को कुछ समझ नही आ रहा था कि क्या करें और क्या ना करें। ऐसे में हमारे यहाँ के कुछ इलाहाबाद और दिल्ली रिटर्न 30-35 साल के युवा बुजुर्ग उसको जीवन में सफल होने का मुलमंत्र बताते है। 'गौर करियेगा ये वो युवा बुजुर्ग है जो खुद के सफ़ल होने की लडाई लड़कर इलाहाबाद और दिल्ली से लौट चुके होते है। चिन्टूआ को मंत्र मिला कि वो इलाहाबाद चला जाये और अपने जिला का परंपरा निभाते हुए कंपटिशन की तैयारी करें। 
           भरे मन से चिन्टूआ के बाबूजी उसे इलाहबाद भेज दिये और साथ में एक महीने का राशन भी बोरी में भरकर भेज दिये।  जाने से पहले बाबूजी बोले " ए बेटा मन लगाके पढाई करिह , और टाइम से खाना-वाना खा लिहअ". जाते ही चिन्टूआ एक नामी कोचिंग सेन्टर में एड्मिशन ले लिया और  शुरू के एक-दो महीना मन से पढाई किया।  धीरे -धीरे उसे शहर का हवा लगने लगा।  खर्चे भी बढ गया था।  उमर के हिसाब से आशिकी भी दिलों -दिमाग पर हावी होने लगी  थी । देखते -देखते एक साल बित गया और एक बार फिर चिन्टूआ इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में फेल हो गया। अब तो फेल होने पर चिन्टुआ को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था। इलाहबाद में नुक्कड़ों पर चाय पर चर्चा के दौरान उसे एक और सिख मिली कि सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रवेश परीक्षा में फेल होना कोई बड़ी बात नहीं है।वहाँ जिला के ही एक युवा बुजुर्ग ने उसे बताया "अरे बबुआ  डिगिरिये न  करना है... सरकारी से करअ चाहे प्राइवेट से। बतिया तअ एके बा न।  तनि पइसवा प्राइवेटवा  में ढेर लागे ला लेकिन नोकरिया तअ जल्दी मिल जाई न "
            ये मंत्र चिन्टुआ को भा गया। इंटर पास होने के बाद ये तीसरा साल था ,बाबूजी से कहानी बताकर क़रीब 50000 हज़ार डोनेशन देकर चिन्टुआ एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला ले लिया। और इंजीनियरिंग की पढाई करने लगा। उधर मोहन MLNR से इंजीनियरिंग के अंतिम साल में था और उसका एक बड़े कंपनी में प्लेसमेंट भी हो गया था। धीरे -धीरे मोहन अपनी ज़िन्दगी के कठीन पक्ष से बाहर निकल गया और एक अच्छा जीवन व्यतीत करने लगा। उधर चिन्टुआ का हर सेमेस्टर में कोई ना पेपर बैक लग जाता था। करते -करते चार साल गुजर गए लेकिन चिन्टुआ का डिग्री अभी पूरा नहीं हुआ था। आख़िरकार पांचवें साल में उसने इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी कर ली। चिन्टुआ का ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। उसके बाबूजी पुरे गांव में मिठाई बटवां दिए क्योंकी उनका चिन्टुआ अब इंजीनियर चितरंजन प्रसाद बन गया था।
              अब चिन्टुआ को चिन्टुआ कहने से बुरा लगता था। वह अपने घर के आगे नेम प्लेट लगवा दिया जिसमे लिखा था "इंजीनियर चितरंजन प्रसाद , बी टेक FROM इलाहाबाद। " 
                डिग्री के दो साल होने को था चिन्टुआ को कहीं से भी कोई जॉब ऑफर नहीं था। धीरे -धीरे उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था। अब वह इलाहाबाद छोड़ने का मूड बनाकर वापस अपने गांव आ गया। गांव आ कर वह अपने बाबूजी के काम में हाथ बटाने लगा। ये बदलाव देखकर उसके बाबूजी ने उससे पूछा "अब का खेतीए  करेके बा आगे , एतना पैसा खर्चा करके तोहके पढ़ैली - लिखैली इहे काम करेके ख़ातिर ?" ये सुनकर चिन्टुआ के आँख में आंसू आ गया और वो बोला "बाबूजी हमरा से बहुत बड़ गलती हो गइल , दूसरा के देखा -देखी काम ना करेके चाहि , हम यदि तोहार बात मान गइल रहती तअ  हमहुँ भैया के संगे आर्मी में भरती हो गइल रहती "
           
                     आज हमारे समाज में इस तरह के ढेर सारे चिन्टुआ है। ज़रूरी है की उन्हें सही समय पर जगाया जाये ,इससे पहले की लेट हो जाये। समाज में देखा -देखी कैरियर बनाने का एक चलन हो गया , ये जाने बिना की छात्र के जीवन पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा। उसका झुकाव किस तरफ़ है , किस फिल्ड में उसे आगे बढ़ने का प्लान है। अपने बच्चों को क्या करना है उन्हें गाइड करिये और हमेशा उनके ग्रोथ का परिक्षण करते रहिये। कब आपका बच्चा इतना बड़ा हो जाये की वो चिन्टुआ की तरह अपनी ज़िन्दगी ज़ीने लगे इसकी भनक आपको नहीं लगेगी और फिर पछताने के सिवा कुछ नहीं बचेगा।

                      हमारे समाज में चिन्टुआ भी है और मोहन भी। पहचानने की ज़रूरत है और उसके हिसाब से
जीवन को मोल्ड करने की कोशिश करते रहना चाहिए।
 
                     उपर्युक्त कहानी मैंने मेरे कुछ अपने अनुभव और कल्पना के आधार पर लिखी है। कहानी के भाव को समझते हुए भाषा में कुछ भोजपुरी शब्दों का प्रयोग किया है जिससे आसानी से देसी तरीके से मै अपनी बात उन लोगों तक पंहुचा पाऊ।  कोशिश है मेरी जितना हो सके जो मैंने महसूस किया है अपने अभी तक के जीवन में उसे लोगों को बता सकूँ। इस लेख से यदि एक भी चिन्टुआ, मोहन बनने की राह पकड़ लेता है तो मेरी लेखनी सफ़ल है। कृपया जनहित में इसे शेयर करें।




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ज़िद है ..

ज़िद है
कुछ करने की इस ज़िन्दगी में ,
याद करे पुश्ते हमारी, 
कर जायें ऐसा कुछ ,
जो किया ना कभी किसी  ने ,

ज़िद है ,
बने एक मिसाल हमारा भी ,
ना चाहा बुरा,
ना हो बुरा किसी का ,
यही सोच है हमारी ,

ज़िद है ,
मिटा दूँ ग़मज़दा लोगों के ,
सारे दुखों को, 
ऐसी शक्ति पाने की ,
तलाश है हमारी ,

ना हो कोई दुखी ,
इस धरा पर ,
हों जायें सभी सुखी ,
कर दूँ ऐसा कुछ ,
ज़िद है 

सहनशील हो जाऊ ,
ना असर हो किसी दुखों का ,
ऐसा कुछ पाने की ,
और कुछ कर दिखाने,
ज़िद है,

सारे झंझावतों से लड़ने और  ,
उससे पार पाने की,
मूल कष्टों को हरा कर ,
उनसे जीत जाने की , 
ज़िद है

आएगा वो दिन भी ,
जब ग़म भी ग़मज़दा हो  जायेगा ,
जब दुःख भी दुखी हो जायेगा ,
तब भी मेरे ज़िद के आगे ,
हार भी मेरे जीत में मुस्कुराएगा ,
ज़िद है,







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अख़बार (फ़ेरी ) वाले का विश्लेषण

            आज प्रात: घर की सफाई के क्रम में श्रीमतीजी ने पेपर वाले को बुलाया। मैंने भी सोचा चलो इससे कुछ देश और सरकार के बारे में बात करते है। वो शख़्स जो रोज़ पुराने अख़बार इकठ्ठा करने के लिए घर से सुबह-सुबह निकल जाता है,उसके विचार सुनकर मै हैरान था। आज देश में जो कुछ भी हो रहा है उसका सटीक विश्लेषण जो उसने किया वो किसी न्यूज़ चैनल पर बैठे उन तथाकिथत ज्ञानी महापुरुषों के होश उड़ा दें। एक अनपढ़ और दिखने में सामान्य कद काठी वाला व्यक्ति का देश और सरकार के बारे में राय जानकर मै भी हैरान था। उसके कुछ अंश आपको बताता हूँ :

मेरा सवाल : कहाँ घर है आपका ?
अख़बार वाला : सर ग्राम किशनपुर जिला - गोरखपुर 
मेरा सवाल : कितने दिन से ये काम कर रहे हो ?
अख़बार वाला : सर 10 साल हो गए यही काम करते -करते। 
मेरा सवाल : परिवार का गुजारा हो जाता है इसमें ?
अख़बार वाला : कहाँ सर तीन बच्चे है ,स्कूल जाते है ,एक रूम किराये पर लिए है, घर का खर्चा पूरा नहीं हो पाता है , इसीलिए वाइफ भी घरों में काम करती है। बहुत मुश्किल हो जाता है। पढ़ा -लिखा भी तो नहीं हूँ ना। अब कोशिश करता हूँ की बच्चों को पढ़ा -लिखा दूँ किसी तरह से। 
मेरा सवाल : यही काम करना है तो गाँव क्यों छोड़ दिये ? कम से कम वहां रूम का किराया तो नहीं देना पड़ेगा। 
अख़बार वाला : कहाँ सर गाँव में क्या बचा है अपनी तो खेती भी नहीं है ऊपर से छोटी जाति का होने से दबंगों का अपना आतंक रहता है ,स्कूल भी गाँव से दूर है , माँ-पिता जी का देहांत हो गया है , अनपढ़ हूँ , कोई इज़्ज़त नहीं है हमारी। यही सोचकर गाँव छोड़कर शहर आ गया सोचा यहाँ जी तोड़ मेहनत करुँगा ढेर सारा पैसा कमाकर अपने बच्चों को पढ़ाऊंगा। 
मेरा सवाल (अपनी भावनाओं को दबाते हुए ) : अच्छा ये बताओ पेपर क्या भाव ले रहे हो ?
अख़बार वाला : सर आठ रूपये लगा देंगे आपको। 
मेरा सवाल : अरे पिछली बार तो  दस रूपये लिये थे अभी कम क्यों ?
अख़बार वाला : अरे सर क्या बताएं जबसे जी यस टी (G S T) लागू हुआ है पूरा धंधा चौपट हो गया है। 
मेरा सवाल : क्यों भाई ? (यहीं से राजनितिक चर्चा की शुरुवात हो गयी )
अख़बार वाला : जबसे  G S T लागू हुआ है कोई माल बाहर नहीं जा रहा है। सब गोदाम में जमा हो गया है। व्यापारी माल नहीं ले रहे है और खरीदने का रेट भी कम कर दिए है। जानकारी नहीं होने से ट्रांसपोर्टर भी भाड़ा बढ़ा दिए है। समझ नहीं आ रहा है क्या करें किसके पास जाये। हमारा तो यही काम है ना, घरों से पुराने अख़बार लेना और व्यापारी को बेच देना। जब व्यापारी खरीदेगा ही नहीं तो हम लोग कहाँ जाये। हमलोगों का तो बुरा हाल है ही बहुत सारे फैक्ट्री बंद हो जाने से मेरे कुछ साथियों का भी यही हाल है। दो -दो महीने से पगार नहीं मिला है। 
मेरा सवाल : अच्छा..... तो इसका मतलब मोदी बढ़िया काम नहीं कर रहा है ?
अख़बार वाला : नहीं सर मोदी बहुत बढ़िया काम कर रहा है। वो तो बिलकुल सही काम कर रहा है बड़े -बड़े व्यापारी लोग जो इतना पैसा कमाते है सरकार को कोई टैक्स देता है क्या और जो थोड़ा बहुत देता भी वो क्या ईमानदारी से पूरा टैक्स देता है? अभी तो G S T नया -नया है धीरे -धीरे सब ठीक हो जायेगा , कोई भी नया काम में थोड़ी दिक्कत तो होती ही है ना सर l
     अभी पिछले साल नवंबर में 500 -1000  के नोट बंदकर मोदी बहुत बड़ा काम किया जितना लोग चोरी का पैसा थाकी लगा -लगा के रखे थे सब बाहर हो गया। अभी जो भी लोग गलत ढंग से पैसा कमायेगा वो चैन से नहीं रह पायेगा। कम से कम इतना भरोशा तो है। हाँ एक बात तो है जब देश में चोरी करने वाला ज्यादा और पकड़ने वाले कम है तो ऐसे में सरकार को बड़े और शख्त कदम तो उठाना पड़ेगा ही जिससे लोगों में एक मेसेज जाये। 
मेरा सवाल : आपको क्या फ़ायदा हुआ है अभी तक ?
अख़बार वाला : देखिये सर हम लोगो को कोई खाश फ़ायदा नहीं हुआ है हम पहले भी गरीब थे और आज भी गरीब है। हम लोग दिहाड़ी मज़दूर है ,दिनभर काम करते है तो शाम का खाना नसीब होता है। अब कोई सरकार हमको बैठा के थोड़ी ना खिलाएगी। लेकिन हाँ एक फ़ायदा हुआ है अब हमारे बच्चे अरहर की दाल अब रोज़ाना खाते है,  सस्ता हो गया है ना, पहले लगभग दो सौ रूपये हो गया था अब तो ६०-७० में ही एक किलो मिल जाता है। हमरा घर में मिट्टी के चूल्हा पर खाना बनता था,लकड़ी और कोयले से बड़ी परेशानी होता था  अब हमको फ्री का एलपीजी सिलिंडर मिल गया है उसी पर खाना बनता है। 
आधार कार्ड बनवा लिए है और बैंक में अपना अकाउंट भी खोलवा लिए है। हर महीना कुछ पैसा बचाकर बच्चों के भविष्य के लिए और अपना घर बनाने के लिए बचा रहे है। 
मेरा सवाल : आजकल आये दिन गोरक्षा , बीफ़ , हिन्दू -मुस्लिम  जो चल रहा है , क्या ठीक है ?
अख़बार वाला (उल्टा सवाल करते हुए ) : तो क्या ये सब का मोदी कर रहा है ? ये सब ठीक नहीं है। सबको एक साथे ना रहना है जी , आपस में लड़कर कौन किसको हराना चाहता है। भला अपनों से जीत कर कौन सुख पा लेंगे आप। पर एक बात कहेंगे आप से ,हम सबको एक दूसरे के धर्म का सम्मान करना चाहिए। और मोदी भी तो यही बोलता है 'सबका साथ और सबका विकास '.क्या है....एतना बड़ा देश में ढेर सारा पार्टी है ,सबको राजनीती तो करना ही है इसलिए कुछ भरमाने वाली बात फैलाई जाती है। हम लोग तो गली -गली घूम रहे है ,देखते रहते है हर जगह क्या -क्या हो रहा है। 
           आजकल एक बात और ठीक नहीं हो रहा है हर छोटी -छोटी बात पर आदमी लोग किसी की जान ले लेते है। आपको तो याद ही होगा कुछ दिन पहले बच्चा चोर के नाम 4 -5 लोग मार दिए गए थे। पुलिस का डर तो लोगों में होनी ही चाहिए नहीं तो सब ख़राब हो जायेगा। 
आजकल टीवीया वाले भी पगला गए है जब भी सोचता हूँ थोड़ा अपना यहाँ गोरखपुर का कुछ समाचार देखू टीवी चालू करते ही खाली मोदी ,योगी ,गाय ,हिन्दू -मुस्लिम ,कश्मीर में आतंक यही सब चल रहा होता है और तो और दो -चार चामुंडा टाइप के लोग बैठ कर अपनी -अपनी पेलने में लगे रहते है और जो न्यूज़ बताने वाला एंकर होता है उसको लड़ाने में ही पूरा मज़ा है। इसीलिए आजकल अपना काम पे ध्यान देते है इन सबको सुनने का फालतू का टाइम कहाँ है अपने पास।
        अच्छा सर थोड़ा लेट हो रहा है ज़रा चलता हूँ। मौसम भी ठीक नहीं है ,बड़ी गर्मी है और कभी भी बारिश हो जा रही है। सुबह-सुबह कुछ काम हो जायेगा तो ठीक है। जाते -जाते एक बात आप से पूछेंगे कि मुझसे ये सब बात आप क्यों पूछ रहे है ? वो क्या है की हमलोगों से ज्यादा कोई बात नहीं करता है ना। लोग ख़ाली पेपर का भाव पूछकर और रेट बढ़ाने का ही मोल -तोल करते है। 
मेरा जवाब : बस ऐसे ही आपसे पूछा। समझने की कोशिश कर रहा हूँ समाज को। आज कल हमारे देश में कई प्रकार की दुनिया एक साथ चल रही है ,
राजनीती की दुनिया,
कॉर्पोरेट की दुनिया ,
गाँव और शहरों की अपनी दुनिया 
एजुकेशन 
लॉ एंड आर्डर 
धर्म की दुनिया 
सरकारी और प्राइवेट कर्मियों की दुनिया 
पुरुषवाद और महिलावाद 
अमीरी -ग़रीबी 
आतंकवाद 
विदेश निति 
सोशल मिडिया 
बुद्धजीवी लोगों की दुनिया 
बचपन ,जवानी और बुढ़ापे की दुनिया 
किसान और विज्ञान 
टेक्नोलोजी की दुनिया 
पर्यावरण 
मनोरंजन 
और ना जाने क्या -क्या। 
           इन सबको जानने की कोशिश कर रहा हूँ। 
अख़बार वाला : अच्छा सर चलते है फिर मुलाकात होगी आप से। बहुत - बहुत धन्यवाद। 

               उम्मीद है आपने मेरा अख़बार वाले के साथ चर्चा को ध्यान से पढ़ा होगा। सीमेंट से बने पत्थर के बड़े घरों में  AC की ठंडी हवाओ में चाय और कॉफी के साथ  ग़रीबी की चर्चा करना जितना आसान है। ग़रीबी में जीना उतना ही कठिन। टीवी चैनलों पर बैठकर राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाना जितना आसान है राष्ट्रवादी होना उतना ही कठीन। आज वो अख़बार वाले जैसा ना जाने कितने किसान,मज़दूर, जो मुफ़लिसी में जीने को मज़बूर है उनकी राष्ट्रीयता उन टीवी में भाषण देने वालों से कही ज्यादा होती है। इसीलिए मेरा मानना ये है, राजनीति देशहित में होनी चाहिए चाहे वो कोई भी पार्टी क्यों ना हो। हम ही सही है इससे काम नहीं चलने वाला। सरकार को सबका सुनना होगा और जो देशहित में है वो निर्णय सरकारों को लेना होगा। 
आपसे अनुरोध है इस चर्चा को देशहित फैलाये (शेयर करें ) और लोगों को जागरूक करे । 

धन्यवाद। 


आपका ,
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नंगे पाँव

आज बहुत दिनों बाद,
नंगे पाँव चलके देखा,
ऐसा लगा जैसे तलवों ने,
धरती को चूम लिया ,

भीगी मिट्टी पर चलने का
एहसास ,कैसे बताऊ तुझे ,
ऐसा लगता है , जैसे
बंजर में बारिश का पानी भरा,

चुभते कंकड़ ने एहसास कराया ,
कितने दूर हो गये धरती माँ से,
जिसने हमे जीना सिखाया ,
उससे भी इतना दूर हो गये कहाँ से,

कहाँ गया वो खुलकर बारिश में नहाना ,
और बीमार ना पड़ना,
अब तो बंद चहारदिवारी में ही,
सारी दुनिया सिमट गयी है ,

वो बचपन की यादें ,
खेतों के बिच टहलना,
मिट्टी में रमे रहना,
लेट होने पर बड़ो की,
डाँट सूनना और बहाने बनाना,

आज बच्चों को मिट्टी क्या है ,
बताना और दिखाना पड़ता है ,
उन्हे डिजीटल भाषा ही
समझ आती है,
कैसे होगा एहसास उन्हे,

मिट्टी की महक क्या होती है ,
आज 4K (High resolution) टीवी स्क्रीन पर,
बारिश की बुंदे देखने का ,
शौक हो गया,
कैसे होगा एहसास उन्हें
उन बूँदो की ठंडक का,
एक बार नंगे पाँव,चलना तो होगा

लाईफ पुरा पिज्जा-बर्गर हो गया
रिश्ते फेसबूक,वाट्सअप,
विचैट और ट्विटर हो गया,
ना मिलना किसी से,ना मिलाना किसी को,
अब तो सब कुछ आनलाईन हो गया,

एक बार नंगे पाँव खुले आसमां में,
चलके तो देखो ,
पैर के तलवों को महसूस करने दो ,
भूल जाओगे सारे गमों को यकीनन,
कभी इसे आजमां के तो देखो ,




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सेल्फ़ी - एक नया जानलेवा क्रेज़ Selfie : A New Dangerous Craze

              परिवहन मंत्री श्री नितिन गडकरी आजकल टीवी पर सेल्फ़ी से  होने वाले मौतों का आकड़ा बता रहे है। कभी सोचा आपने मंत्री जी को ऐसा क्यों करना पड़ रहा है। भारत में सड़क दुर्घटना में होने वाले मौतों के बाद सर्वाधिक मौत यदि किसी बुरी आदत हो रही है, तो वो है सेल्फ़ी। "सेल्फ़ी" जैसा की नाम से मालूम चलता है स्वयं की फोटो खुद से लेना। आजकल आये दिन टीवी और अखबारों. में ये देखने और सुनने को  मिलता है कि सेल्फ़ी लेने के चक्कर में जान गयी।
             छोटे से लेकर बड़ो तक इसके शिकार हो रहे है। सबसे ज्यादा शिकार इसके किशोर अवस्था के बच्चे हो रहे है। ये समस्या एक विकराल रूप लेती जा रही है। हर दिन कही ना कही से ये सेल्फ़ी से मौत की खबर आती रहती है। एक रिसर्च में ये सामने आया है कि पूरी दुनिया में सेल्फ़ी से होने वाले मौतों में सबसे ज्यादा 75%  मौत भारत में हो रही है। बेहद गंभीर हो चुकी इस समस्या का एक इलाज़ है वो है सामूहिक जागरूकता। अपने बच्चों को इससे होने वाले  खौफनाक परिणाम की जानकारी देते रहिये। और हमेशा उनको गाइड करते रहे। 


      जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को सहेज कर रखना सही बात है , पर अपनी जान की कीमत पर नहीं। तेज़ चलती हुए ट्रेन के सामने से खुद की फ़ोटो निकाल कर कौन सा रोमांच हासिल करना चाहते है लोग , ट्रेन की छत पर खड़े होकर 25000 वोल्ट तारों के बिच फ़ोटो निकालकर क्या साबित करना चाहते है, तैरती हुई नाव पर बिच नदी में असुरक्षित फोटो निकालना कहाँ की समझदारी है , किसी ऊँची बिल्डिंग या पहाड़ की चोटी से ख़ुद की फ़ोटो ख़ुद से निकालना कहाँ तक जायज़ है,जंगली जानवरो के साथ फ़ोटो लेना ये कौन सी दिलेरी है ,चलती हुई बाइक,कार और बसों से सेल्फ़ी लेना सीधे मौत को दावत देने के बराबर है। ये वो उदाहरण है जिसमें आपने कभी ना कभी टीवी या अखबारों में होने वाले मौत की जानकारी सुनी या पढ़ी होगी। 
       जबसे भारत में स्मार्ट फ़ोन का चलन बढ़ा है , सेल्फी से होने वाले मौत के आकड़ो में बेतहाशा वृद्धि हुई है। हर छोटी से छोटी बात कैमरे में कैद हो जानी चाहिए। सोशल मिडिया पर लाइक ,शेयर ,कमेंट का चलन जिस तरह बढ़ा है,इसी का ये दुष्परिणाम अब देखने को मिल रहा है।  वैसे भी हम भारतीय सड़को पर नियम कितना फॉलो करते है ये किसी से छुपी हुई बात नहीं। और ऊपर से कान में हेड फ़ोन ,हाथ मोबाइल के स्क्रीन पर और दिमाग़ कहीं और। भारतीय सड़कों पर ऐसी स्थिति में चलने का परिणाम क्या होगा ये बताने की जरुरत नहीं है। 
         हर दुर्घटना के सरकार और सरकारी तंत्र को दोषी ठहराना ठीक नहीं है हम सबको भी अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी। हमें भी सरकार द्वारा बनाये हुए नियमों का पालन सख्ती से करना होगा। दुर्घटना से बचने के लिए सामूहिक ज़िम्मेदारी लेनी होगी तभी जाकर इनसे होने वाले मौतों को काम किया जा सकता है।




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अभी तो चलने की शुरुवात है

अभी तो चलने की शुरुवात है, 
थकना मना है दोस्त,
चलना तो छोड़ नहीं सकते,
और तेज़ चलने की 
ज़रूरत है ,
और दूर बहुत जाना है दोस्त 

फ़ासले भी तय कर लेंगे ,
दोस्तों को साथ लेकर ,
बिना रिश्तों से दूर हुए ऐ दोस्त 
भीड़ में तो सब चलते है ,
अकेले -अकेले तो सिर्फ़ 
शेर ही चला करते है,
दोस्ताना छोड़ना तो ,
फ़ितरत नहीं हमारी ,
गैरों को भी अपना बना लेते है दोस्त,

जो दिलों में बसते है,
उनकी परवाह भी है ,
और याद भी ,
और हमें मालूम है उन्हें बताने की, 
ज़रूरत भी नहीं 
क्योकि, उन्हे भी है  हमारी  
याद भी और परवाह भी
ऐ दोस्त 















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अमरनाथ -हमला

          
                अमरनाथ दर्शनार्थियों  पर ये हमला सिर्फ़ इंसानियत पर हमला ही नहीं अपितु ये जबरदस्त चुनौती है हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर। कैसे मान सकते है इतनी सुरक्षा के बिच इतना बड़ा आतकवादी हमला हो जाता है? साल के इस बहुप्रतीक्षित यात्रा पर लाखों खर्च किये जाते है सुरक्षा व्यवस्था पर। सब जानते है यात्रा कितना संवेदनशील है, सारा मिडिया तंत्र इसमें लगा हुआ होता है। सुरक्षा में इतनी बड़ी खामी हमारी इंटेलिजेंस का पूरा फेलियर है। जिम्मेदारी बनती उन पर और लेनी भी होगी जिम्मेदारी उनको। ये आम तीर्थ यात्री के भरोसे की सवाल है। 
                मुझे जम्मू -कश्मीर के बारे में उतनी ही जानकारी है जितना मैंने टीवी,अख़बार ,पत्र -पत्रिकाओं में देखा और पढ़ा है , पर एक बात दावे के साथ कह सकता हूँ इतना बड़ा हमला बिना विभीषण के सम्भव नहीं है। सरकार को उन आतंकियों की पहचान कर कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। सरकार केवल निंदा और बयानबाज़ी करके नहीं बच सकती चाहे वो राज्य सरकार या फिर केंद्र सरकार।
                ज़रा सोचो उन लोगों के बारे जो इस हमले का शिकार हुए है , वो बाबा बर्फ़ानी के दर्शन के लिए ही तो गए थे। उन्हें क्या पता हमारे ही बिच कुछ ऐसे है जो इंसानियत के दुश्मन है। 

दुःखद है। 
बाबा बर्फ़ानी दिवंगत आत्मा को शांति दें।  











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हे भोले ...

हे भोले
कर दो कुछ
ऐसा इस सावन में,
मिट जाये लोगों के ,
कष्ट,ना रहे भूखा-प्यासा कोई ,
इस धरा पर ,
ना हो मौत किसी का ,
भूख से ,
जो उगाता है ,
वही भूखा है ,
और जो खाता है ,
वो तय करता उनकी नियति,
वाह क्या विडंबना है,

हे भोले
क्यों बनाया भिन्नता  ,
इंसानों के बिच,
कोई खा-खा के मर रहा,
कोई बिना खाये ही,
सो जाता है,
किसी के पास,
पहनने को कुछ भी नहीं ,
और किसी को पसंद का ,
रंग नहीं मिलता ,
कर दो ऐसा कुछ
इस सावन में भोले ,
भूखे को खाना मिल जाये ,
नंगे को ओढ़ने को मिल जाये ,

हे भोले
बहुत अशांति है अभी ,
दुनिया में,
क्यों प्यासे है खून के ,
एक दूजे  के,
क्यों मार -काट मची है ,
इस दुनिया में ,
रक्तरंजित हो रही धरा,
क्षीण हो रही मानवता है,
कर दो ऐसा कुछ
हे भोले की
शांत हो जाये धरा ,

हे भोले ,
क्या पाना चाहता इंसान ,
सब जानते हुए ,
अनजान क्यों है ,
जब समृद्धि ना हो तो अशांत ,
समृद्धि आ जाये तो असंतोष ,
आखिर मंज़िल तो एक ही  है,
फिर क्यों पड़ा है ,
चक्कर में ,
मिटा दो द्वेष भाव मन से ,
इस सावन में,
हे भोले।

हे भोले ,
करके तांडव ,
आ जाओ इस सावन में ,
मिटा दो दुखों के घना को ,
कर दो खुशहाल,
इस धरा को,
हे भोले।

हर -हर महादेव




















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मेरे गुरु जी -त्याग,संघर्ष और सफ़लता की कहानी

                  आज गुरुपूर्णिमा के दिन मै आपको एक ऐसे शख्श की कहानी बताऊंगा जिनका पूरा जीवन त्याग ,तपस्या ,संघर्ष और सफ़लता की कहानी से परिपूर्ण है। और इनका मेरे और मेरे परिवार पर गहरा प्रभाव है। एक ऐसा शक्श जिसका पूरा जीवन ही संघर्ष से भरा हुआ है। वो हैं मेरे गुरु जी जिन्होंने ने सिर्फ़ मुझे और मेरे भाई को ही नहीं मेरे पापा को भी पढ़ाया है। उनके द्वारा शेयर किये गए बातों के आधार पर मै एक कहानी बताता हूँ।
                    आज़ादी के बाद जब हमारा देश बदल रहा था उस समय उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर ज़िले के एक छोटे से गाँव गंगौली में एक ग़रीब मुस्लिम परिवार में एक  बच्चे का जन्म हुआ। बच्चे की ख़ुशी में पूरा परिवार बेहद खुश था। धीरे -धीरे जब बच्चा बड़ा होने लगा परिवार की ख़ुशी अचानक ग़म में बदलने लगी। उनके ग़म का कारण था बच्चे का पोलियो से ग्रसित होना , बच्चा अपने दोनों पैर से विकलांग हो गया था। वो अपने दोनों पैरों से चल पाने में अक्षम था। परिवार में मानों दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। सभी लोग बच्चे के भविष्य को लेकर काफ़ी चिंतित थे। गांव , मुहल्ला, रिश्तेदार सब मिलने आते थे और बच्चे को तरस भरी निगाहों से देखते हुए कहते थे "अब इनका क्या होगा " , छोटा बच्चा ये सुनते और देखते हुए बड़ा हो रहा था। और बच्चे के में मन में एक बात घर करती जा रही थी कि वो कुछ कर नहीं पायेगा। भगवान ने उसे एक बहुत बड़ी चीज़ दी थी और वो था तेज़ दिमाग़। समय बीतता जा रहा था जब बच्चा मिडिल स्कूल में था उसी गांव के प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य ने उस बच्चे की प्रतिभा को देखते हुए उसके बारे में परिवार से कहा, ये और कुछ तो नहीं लेकिन टीचर बन सकता है। बच्चा ये सब सुन रहा था और उसने उस कच्ची उमर में सुनी हुई बात को अपने दिलों -दिमाग़ में बैठा लिया और ये मान लिया वो कम से कम टीचर तो बन सकता है। और यही से शुरू हुई एक बच्चे के टीचर बनने की कहानी।
               जिस ज़माने में ट्रांसपोर्ट का समुचित व्यवस्था नहीं था उस समय एक विकलांग बच्चे का अपने गांव से दूर निकल पाना आसान नहीं था। उस बच्चे ने अपने आत्मबल और इच्छाशक्ति से कभी अपने कमज़ोरी को हावी नहीं होने दिया। कक्षा में अव्वल आना अब उसकी आदत बन गई थी और उससे मिलने वाली छात्रवृति से अपने पढाई को आगे बढ़ाते रहा। समय बीतता गया और उस बच्चे ने हाईस्कूल और इंटर की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास किया। इंटर में अच्छे अंक लाने से सारे लोगों ने उसे किसी बड़े यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग करने की सलाह दी , परन्तु बच्चे के मन में तो कुछ और ही चल रहा था। अपने प्रधानाचार्य की कही हुई बात "ये और कुछ तो नहीं पर टीचर ज़रूर बन सकता है", उसके दिलों-दिमाग़ में गूँज रही थी। यही सोचकर वो बच्चा जो अब किशोर हो गया था , BHU  यूनिवर्सिटी में बीएससी में दाख़िला ले लिया। दोनों पैरों से विकलांग एक किशोर लड़के को अपने गांव से 100 किलोमीटर दूर बनारस आने -जाने में कितनी जद्दोजहत करनी पड़ती होगी ये सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते है। बहरहाल उस किशोर लड़के ने अपनी अपनी स्नातक की पढाई प्रथम श्रेणी में पास की। और अपने जूनून को पाने की ज़िद ने उस किशोर को उत्तर प्रदेश में सरकारी विद्यालय में टीचर के रूप स्थापित कर किया।
                अध्यापक बनने के बाद उनका सिर्फ एक लक्ष्य था, उनके सानिध्य में आने वाले बच्चे क़ाबिल बने। और इस प्रोफेशन को प्रोफेशन ना मानकर समाज में शिक्षा को लेकर अलख जलाने का जो कार्य इन्होंने किया वो काबिलेतारीफ़ है। इन्होने ने कक्षा में क्लास लेने की पारम्परिक विधाओं में बदलाव किये और वो शैली विकसित किया जिससे बच्चों को पढाई में मज़ा आने लगे। वो कहते थे पढाई को मज़े लेके पढ़ो तो सब समझ आएगा। और उन्होंने अपने कार्यकाल में इसे साबित भी किया। और उनका नाम है श्री समीउल्लाह सर।
                आज समीउल्लाह सर रिटायर हो गए है  परन्तु आज भी वो अपने उसूलों के पक्के है। आज जिस तरह से शिक्षा का बाज़ारीकरण हो रहा है इससे उनकी आत्मा को काफ़ी ठेस पहुँचती है।  वो कहते कि आज रटने की प्रवृति विकसित की जा रही है , समझने की नहीं, जो की घातक है। और चलकर ये बेरोज़गारी को बढ़ावा देती है। उनके द्वारा कहे बातों की एक लम्बी फेहरिस्त है। जो मै आपको अपने किसी और ब्लॉग में शेयर करूंगा। आज गुरुपूर्णिमा के दिन गुरु जी को शत -शत नमन।



 


















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मिडिया से नियंत्रित होता हुआ राजनीति

          आज सोशल मिडिया का ज़माना है।  किसी को कोई भी बात बतानी हो , दिखानी हो या सुनानी हो पलक झपकते दुनिया के कोने -कोने में फैल जाती है।  इसका प्रभाव हमारे समाज पर इस कदर हावी हुआ है कि आज कुछ भी इसके बिना आप सोच ही नही सकते है। ये प्रभाव शुरुवाती दौर में शहरों तक सीमित था परंतु आज धीरे-धीरे ये सुदुर गावों में भी अपना पैठ बना लिया है।  लोगों के बीच आसानी से अपनी बात पहुँचाने का एक अच्छा और सस्ता माध्यम साबित हो रहा है सोशल मिडिया। इसका सबसे पहले भारतीय राजनीति में प्रयोग गुजरात में किया गया जो पुरी तरह से सफ़ल साबित हुआ। और इसी से उत्साहित होकर सन 2014 में भारत के सबसे बडे चुनावी दंगल में इस मिडिया का प्रयोग आक्रमक तरीके से किया गया,जिसने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों बदल के रख दी।
              और यही से भारतवर्ष की राजनीति की एक नई दिशा की शुरूवात हो गयी। आज हर पार्टी में एक सोशल मिडिया विंग है जो उस पार्टी के एजेंडा को लोगों के सामने रखती है। जो पार्टी जितनी आक्रमकता से मिडिया को मैनेज करती है वो उतनी ही तेज़ी से अपना वोट बैंक बढने का उम्मीद करती है। पर अब इसका दुष्प्रभाव दिखने लगा है। अब पार्टियाँ लोगों को मिडिया के द्वारा भ्रमित करने का प्रयास करने लगी हैं। जिसका दुष्प्रभाव ये है की लोगों का धीरे -धीरे सोशल मिडिया और डीजिटल मिडिया से भरोशा खत्म होने लगा है। हर छोटी-छोटी घटना को मिडिया में इस तरह से पेश करना की ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ है  और उस पर राजनीति करना कहाँ तक जायज़ है। और आज ये हर पार्टी अपने -अपने क्षमता के अनुसार कर रही है।
     मिडिया को मैनेज करने की जो कुप्रथा अभी सामने आयी है इसका विकराल स्वरुप अभी आना बाकी है। अभी हाल ही में देश के एक नामी न्यूज चैनल के मालिक का विडिओ सोशल मिडिया पर खूब वायरल हुआ जिसमे वो टीवी न्यूज चैनलों के स्याह पक्ष को सामने रखते हुए दिखते है। सुनकर एक आम आदमी के मन में मिडिया के प्रति  जो छवी बनी है वो कही से भी देश हित में नही है। पत्रकारिता को लोकतंत्र में चौथा स्तंभ माना गया है। इससे भरोषा उठना मतलब लोकतंत्र की हत्या है जो किसी भी हालत में ठीक नहीं है । 
            आज कल एक और दौर चला हुआ है 'पेड मिडिया' का। कभी -कभी तो ये समझ नहीं आता की जो हम प्राइम टाइम में न्यूज़ या डिबेट देख रहे हैं वो पेड है की अनपेड। जिस तरह चैनल बदलने से हमारी भाव -भंगिमाएं बदल रही है और एक ही मुद्दे पर अलग-अलग चैनल पर अलग-अलग विचार सामने आते है ,हैरत होती है पत्रकारिता पर। सोचता हूँ क्या सच में मिडिया पूरी तरह से मैनेज किया जा रहा है ? क्या पत्रकारिता ने चाटुकारिता की जगह ले ली है ? राजनितिक पार्टियों के एजेंडा को जनता के सामने प्रस्तुत करना ये कहाँ की पत्रकारिता है ? क्या टीवी मिडिया का उद्धेश्य सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसा कमाना रह गया है ?सामाजिक सरोकार भी तो इनकी ज़िम्मेदारी है।
                आज टी आर पी का ज़माना है ,हर दिन कोई ना कोई नंबर १ होगा ही। ज़्यादा रेटिंग के लिए न्यूज़ को बताने ज़्यादा न्यूज़ बनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है जो पूरा एंटरटेनमेंट पैकेज होना चाहिए। आज राजनीति का पैठ मिडिया में इतना ज़्यादा हो गया है कि सरकार बनते ही पहले ३० दिन ,१०० दिन और फिर एक साल का रिपोर्ट अनिवार्य हो गया है। रिपोर्ट अच्छा या बुरा ,चैनलों को मिलने वाली मुद्रा पर आधारित होता है। पूरा का पूरा फोकस राजनितिक पार्टियों की छवि बनाने में  हो रहा है । इससे साबित हो रहा की आज भारत की राजनीती पूरी तरह से मिडिया से नियंत्रित है।



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बढ़ते चले जाओ

होते हैं अतीत की यादें ,
कुछ खट्टे,कुछ मीठे ,
यही तो ज़िंदगी है ,
मत रुको अये दोस्त ,
उन कड़वे यादों में खो कर,
बस बढ़ते चले जाओ मुस्कुराते हुए ,
अपनी मज़िल की ओर ,
मिल ही जाएगी मंजिल ,
विश्वास रखो ख़ुद में ,
बस सीखते जाओ ,
अपने अतीत से। 



 आपका ,
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Bold Decision (बड़ा फ़ैसला )

बड़ा फ़ैसला 

"taking bold decision is easy but live with the decision is very tough" it's needed patience.

"So take the decision & live with them" & keep patience for good result.


"बोल्ड फैसले लेना आसान है, लेकिन निर्णय के साथ जीना बहुत मुश्किल है" इसके लिए धैर्य की आवश्यकता है

"तो निर्णय लें और उनके साथ रहें" और अच्छे परिणाम के लिए धैर्य रखें


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अब ज़ी लेने दे मुझे

जब उछाल दिया
अपने अकेलेपन को आसमाँ में ,
फ़िर क्या अकेलापन ,
मिल गया साथ
करोड़ों सितारों का मुझे,
अब नहीं कोई गिला अये ज़िंदगी,
बस अब ज़ी लेने दे मुझे भी ,
अब खुले आसमाँ में



आपका,
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सन्नाटा

ग़र सन्नाटा भी जी भर कर चीखने लगा ,
उनकी यादों के परिंदे ,
सिमट जायेंगे आग़ोश में ,
जहाँ वो दिखें वहीं ,
होता है जन्नत का पता ,
ताज़महल क्या वो चाहें तो ,
पूरी क़ायनात भी बना देंगे हम। 



आपका,
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बदलाव..

रिसोर्ट मे विवाह...  नई सामाजिक बीमारी, कुछ समय पहले तक शहर के अंदर मैरिज हॉल मैं शादियाँ होने की परंपरा चली परंतु वह दौर भी अब समाप्ति की ओ...