आको बाको : निष्पक्ष समीक्षा

   वाह बहुत सुंदर। क्या खुब डिजाइन है इस बुक की। जैसे ही किताब मेरे हाथों में आई , एक बार तो मैं देखता रह गया। किताब के उपर बने हुए डिजाइन आपको आकर्षित करते हैं। कहीं मां के बच्चा भागता हुआ दिखता है तो कहीं जानवर से बात करता हुआ इंसान, कोई आफिस जा रहा है, तो कोई स्कूल, खेत में दवा का छिड़काव भी आपको दिखेगा। जीवन का हर रंग एक सफेद और सादे पेज पर  सादगी से उकेरने की कोशिश की गई है। बधाई दूबे जी और हिंदी युग्म।
 
  अभी किताब कल ही हाथ लगी है। सोलह कहानियों का संग्रह है यह किताब। पहली कहानी 'सुपर माम' अभी मैंने पढ़ी है। पहली ही कहानी में दूबे जी अपना रंग दिखा देते  हैं । कुछ लाइनें दिल को छू जाती है। सामान्य मीडिल क्लास की मां के संघर्ष को पढ़ते हुए कई  बार गला रूंध जाता है। बहुत अच्छी कहानी है आप कहीं खो से जायेंगे। 
सभी पाठकों से आग्रह है जरूर पढिए और लोगों पढ़ने के लिए प्रोत्साहित जरूर करिए। आपको नहीं पता कौन सी लाइन किसके जीवन में क्या परिवर्तन ला दे।

मुझे जो लाइनें बहुत अच्छी लगी है उनका जिक्र जरूर करूंगा :

१) याद समंदर की लहर के जैसे आई और पुराने दिनों की उम्मीद बहाकर ले गई। याद रात के तारे की तरह आई और नींद उड़ाकर चली गई। याद हर तरीके से आई, बस अच्छी याद की तरह नहीं आई।

२) "जिंदगी के बड़े फैसले आराम से बैठकर नहीं, बेचैनी से फूट-फूटकर रोते हुए पलों में लिए जाते हैं।

३) आदमी बदलता है तो उसकी महक भी बदल जाती है।

४) मैडम, सही रास्ता मिलने के बाद भी उस पर चलना इतना आसान नहीं होता, लेकिन मैडम मैं थकी नहीं हूं।

५) "मैं खुद ही अपनी प्रेरणा हूं, प्रेरणा अपने अंदर होती है।"

ये लाइनें काफी कुछ कहती हैं। और आपको प्रोत्साहित करती है। कुछ कर गुजरने की।

दूबे जी बहुत सुंदर लिखा है आपने। आपके बारे में जैसा सुना था, जैसा देखता हूं और जैसा सोचा था वैसे ही हैं आप। आपको बहुत बहुत बधाई और भविष्य की हार्दिक शुभकामनाएं।

https://youtu.be/aC7VDaFAtig





आपका,
रवीन्द्र नाथ जायसवाल
मेरा नज़रिया (ब्लागर)

No comments:

Post a Comment

बदलाव..

रिसोर्ट मे विवाह...  नई सामाजिक बीमारी, कुछ समय पहले तक शहर के अंदर मैरिज हॉल मैं शादियाँ होने की परंपरा चली परंतु वह दौर भी अब समाप्ति की ओ...