सोचता हूँ

   ये कविता उन हजारों-लाखों निष्ठावान युवाओ की सोच को दर्शाता है जो अपने घरो से दूर कोरोपोरट घरानो मे काम करते है .और ये वो युवा है जिन्हे बचपन मे किताबी बातें ही सिखायी गयी. जब ये कठोर कोरोपोरट जीवन जीतें है तो उन्हे बहुत कठिनाई होती है . ये कविता उन्ही निष्ठावान युवाओ की कशमकश को दर्शाता है .

सोचता हूँ 


क्या गलत है और क्या सही,
सब नज़रिये की बात है ,सोचता हूँ .
ऐसा नही है , की मै गलत करता हूँ ,
पर जो करता हूँ वो सब सही हो ऐसा भी नही है,
ये कौन बताये की ये सही है और ये गलत,
बहुत कठीन है ये बताना ,सोचता हूँ .

ये ज़माना खराब है , लोग खराब है ,
कब ज़माना ठीक था और कब सारे लोग सही, सोचता हूँ .
ना वो दौर कभी था और ना कभी होगा ,
पहले भी ऐसे ही था और आज भी वैसा ही है ,
बस एक बदलाव ये कि मै पहले ऐसा नही था,
जैसा आज , थोडा मै भी तो बदला हूँ , सोचता हूँ .

दूसरो की गलती बताते-बताते ,
कब मै गलत हो गया, सोचता हूँ .
हमे खुद मे झांकना तो होगा ,आखिर दूसरो पे आरोप लगाना, कब तक चलेगा, सोचता हूँ .
क्यो ऐसा लगता है कि सब मेरे विरोधी है ,
सहमति बनाना और लोगो का भरोसा हासिल करना , 
ये भी तो मेरा ही काम है , सोचता हूँ .

अब बडा हो गया हूँ मै अब मुझे सहारे की नही है ज़रूरत, बस यही गलती कर बैठा, सोचता हूँ ,
किताबी ज्ञान से, सामाजिक ज्ञान होता है भिन्न, ये भाँप ना पाया, और इसे ही जीवन मे उतारा, ये आंक ना पाया , थोडा मुझे भी तो बदलना तो होगा , सोचता हूँ .

मै बदल दूँगा अपने आपको, ऐसा हुआ है क्या कभी ? क्या कभी किसी ने खुद को बदला है सोचता हूँ ,
समय और परिस्थिति बदली है या वो खुद बदला है ,
या खुद को बदलकर परिस्थिति और समय को बदला है , सोचता हूँ ,
बहुत कठिन है ये रास्ता , आसान कैसे बनाऊ ?

क्या भूल जाऊ वो सारी किताबी बातें, 
बडे-बुजुर्गों की हिदायतें, क्या वो सारी बातें थी गलत ? कुछ समझ नही आता , कोई रास्ता नही सूझाता, क्या करू ,कैसे करू, कोई तो होगा बताने वाला , सोचता हूँ .
ये कहना आसान है खुद को बदलो ,पर क्या ये आसान है उतना? सोचता हूँ .





आपका,
meranazriya.blogspot.com

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