प्रस्तुत कविता उस माँ की कहानी है जो भरे बाज़ार में सर्दी हो या गर्मी या बरसात हर मौसम में जमीन पर कुछ ताजे फल या सब्जी रखकर तरसती आंखों से ग्राहक का इंतजार करती है.
कभी कभी जरूरत ना भी हो तो खरीद लिया करो दोस्तों.. सुखद एहसास होगा...
निकल पड़ी है वो माँ,
आंखों में उम्मीदें लेकर,
दिलों में भरकर हसरतें,
वो तरसती आंखें,
सुबह की लालिमा से पहले,
खेतों में खट कर ,
तैयार साग सब्ज़ी चुनती है वो माँ
पैरों में चुभते है कांटे,
उफ ना करती है वो माँ
है ये उस माँ की तरसती आंखें,
कलयुगी कुपुतों ने छोड़ दिया उसे,
बीच मझदार में,
उन्होंने भी (पति) साथ छोड़ दिया,
वो होते तो..हिम्मत होती,
जो अब तक लड़ी थी ज़माने से,
अब चित्कारती है वो माँ,
उस माँ की तरसती आंखें,
कुछ ना कहते हुए भी,
बहुत कुछ कह जाती है,
ऐ बेदर्द जमाना,
ऐसा क्यों हो गया रे..
एक बार ही सही देख तो ले,
ये तेरे लिए ही है..मान ले,
इन तरसती आंखों के लिए
चेहरें पर पड़ी हुई झुर्रियों के बीच,
ताकती वो तरसती आखें,
कहती है...उसे जीना है,
मत छोड़ उसे,
जरूरत ना हो..तो भी ले ले,
क्या फर्क पड़ेगा तुझे
एक पुण्य कमाने का मौका
मानकर, ना गवां इसे..
सहेजकर चार सिक्के,
कमर में बांधकर रखती है वो माँ,
सुनकर किलकारियां,
खिल उठती है ं ,
वो तरसती आखें,
सब कुछ लुटाना चाहती है,
पर ऐसा कर ना पाती है वो माँ,
भीगी पलकों से देखती है,
वो तरसती आखें,
कोई आए और कह दे,
चल माँ, अब घर चल...
सोचती है वो माँ..
वो तरसती आखें..
आपका,
© मेरा नज़रीया
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