आज बुंदों ने जंग छेड़ रखी है,
बिजली की कौंध,
डराती है,
काले घनेरें बादल,
बस टूट पड़ने को आतुर है,
हवाओं का रुख भी आज,
बदला - बदला सा है,
वाह क्या सुंदर नज़ारा है,
सब कुछ छुपा लेने की
पर ये पर्वत विशाल है,
बादलों को अपने आगोश में,
रखने की चाहत है,
हवाओं की सरसराहट,
डराने वाली है,
खिड़की से बुंदों की झर- झराहट
कुछ कहना चाहती है,
आज मैं आज़ाद हूं,
बताना चाहती हैं,
अब फिर से यात्रा की शुरुआत है,
नहरों नालों से होते हुए,
नदी मिलन को आतुर है,
फिर होगा सवेरा,
इस आस में जिंदगी से,
जंग छेड़ रखी है,
आज बुंदों ने फिर से जंग छेड़ रखी है।
© मेरा नज़रिया
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