क्या ये सिर्फ राजनीति नहीं है?

पिछले कुछ सालों से एक दौर सामने आया है। किसी भावुक मुद्दे पर जबरदस्त विरोध करो, और इतना विरोध करो की मामला हिंसक ना हो जाए। चुकी मुद्दा भावुक होता है इसलिए जनसमर्थन मिल ही जाता है। हिंसा फैलते ही सारे न्यूज़ चैनलों , राष्ट्रीय समाचार पत्रों का हेडलाइन बन जाना और सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनना अब ये आम बात है। और फिर यही से शुरू होती है नेता बनने की कहानी। जो भी संगठन इन सब विरोधों में शामिल  होती है उनमें कुछ अच्छे वक्ताओं की तलाश करती है और उन्हें न्यूज़ चैनलों की दुनिया में ढकेल देती हैं। कुछ युवाओं की टोली संगठन के विचारों को सोशल मीडिया पर वायरल करने में लग जाती है। सभी का सिर्फ एक मक़सद होता है कैसे मीडिया में चर्चा होती रहे। लोग ग़लत या सही इनकी बात करते रहे। अक्सर आप ग़ौर करेंगे तो पायेंगे जहां सबसे ज़्यादा विरोध हो रहा होगा वहां पे अगले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले होते हैं। सारे कर्मठ कार्यकर्ताओं के मन में उन चुनावों में अपना भविष्य नज़र आने लगता है। न्यूज़ चैनलों में भी टी आर पी के होड़ मची रहती है इसके लिए ऐरे गेरे किसी को भी बुला कर उनके निहायत लो क्वालिटी डिबेट करते हैं। इन सब फ़ालतू के बहसों में दोनों जीत जाते हैं और वो मुद्दा हार जाती है। चुनाव होते हैं इनमें से बहुत से योद्धाओं की अलग-अलग पार्टीयों से टिकट मिल जाता है और उनकी नेतागिरी शुरू हो जाती है। और जिस भावुक मुद्दे को लेकर वो आगे बढ़े थे चुनाव जितते ही सब भुल जाते हैं।

       आप पिछले तीन-चार सालों की किसी भी बड़े घटनाओं को याद करिए सब में यही प्रक्रिया दोहराया गया है। आम जनता मुर्ख बने ये सब देखती रहती है। नेता बनने का ये नया  दौर चल रहा है । इन सब प्रक्रियाओं में लोगों का पत्रकारिता से भरोसा लगभग उठ गया है। अब लोग न्यूज़ चैनलों को अलग-अलग पार्टीयों से रिलेट बड़ी आसानी से कर लेते हैं।

आजकल पूरे देश में फिल्म के विरोध में जो भी चल रहा है वो सिर्फ राजनीति है और कुछ नहीं।
कुछ तस्वीरें शेयर करता हूं जिससे आप कुछ अंदाज़ा लगा पायेंगे।

नोट : तस्वीरें गूगल से ली गयी है।








आपका,
मेरा नज़रीया

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