देहावसान.... एक सच

पुरे हफ्ते की आपाधापी के बाद रविवार का दिन इस आशा के साथ कि दिनभर आराम करूँगा। सावन का महीना चल रहा है। लगातार बारीश से पुरा शहर अस्त व्यस्त है। जमशेदपुर की हरियाली चरम पे है। सुखद लगता है जब अपनी बालकनी से हरे भरे पहाड़ों को देखता हूँ। अपने फ्लैट में रहते हुए आगामी १७ जुलाई को पुरे सात साल हो जायेंगे। हर दिन इन पहाड़ों को देखता हूँ और अक्सर घर में कहता रहता हूँ कि मै कभी बोर नहीं होता हूं इसे रोज देखते हुए। इस साल का पहला सावन का सोमवार कल है, पुजा के बर्तनों की सफाई चल रही है। मुसलाधार बारीश भी हो रही है, बिजली चमक रही और बादल भी गरज रहे हैं। इन सब के बीच मन बहुत उदास है। 

उदासी का कारण मैने पत्नि से साझा किया। लगभग 6 बज रहें होगें, दिन क २-३ घंटे की गहरी नींद के बाद। उठते ही मोबाइल देखते हुए सन्न रह गया। मेरे बचपन के मित्र (जो अब दुनिया में नहीं है) के पिता जी के आकस्मिक निधन का दुखद पोस्ट शेयर किया गया था। अचानक मै अपने बचपन के दिनों में खो गया। सफेद धोती और कुर्ता में सदैव दिखने वाले पितातुल्य चाचा जी के साथ के दिनों की स्मृति आंखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगी। उनका चेहरा बार बार सामने आ रहा है। साथ में एक शुकुन की आज मेरा मित्र बहुत खुश होगा क्यूँकि आज उसके पिता जी उससे मिलने आ रहें हैं। और अगले ही पल गंभीर चिंता मन को हैरान और परेशान कर रही है। 

     आज गांव को छोड़े हुए लगभग २४-२५ साल होने को है। मेरे बचपन की कुल मिलाकर ६-७ सालों की स्मृतियाँ है जो लगभग १९९४-२००१ के बीच गुजरी है। उसके पहले १९८४ - १९९३ के बीच का समय कुछ याद भी नहीं है। समय कैसे तेजी से बित रहा है पिछे मुड़कर कर देखता हूं तो ऐसे लगता है धीरे धीरे उन पुराने लोगों का साथ छुटता जा रहा है। 

देहावसान एक सच है। सच को स्वीकारना होगा। आज इनकी बारी कल किसी और की। यही सच है। 

आपका, 
मेरा नज़रिया

वो आंखें..

वो आंखें... 

वो आंखों में, 
चित्कार है
कसक है, 
घर छुटने का ग़म है
पराया होने का मरम है
डर भी है, खौफ भी है
वापस ना आने का दर्द है
अपनों से उम्मीद है
फिर भी नाउम्मीद है
ढुढती हुई आंखे
कुछ देर रूक जाओ
इस आवाज़ के लिए
तरसती हुई आंखें
कभी मां, कभी बाप
कभी भाई तो कभी बहनों
को तलाशती आंखें
और इस तलाश में
माँ- बाप की वो बेबस आंखें
कराहती आंखें
सब कुछ एक साथ
सबको समाहित करती हुई आंखें
कितना क्रंदन है
कलेजे को भेदने वाली 
चित्कारती आंखें, 
ये तड़प है, 
एक पड़ाव खत्म होने का
और दुसरे के शुरूआत का, 
संशय से भरी हुई आंखें
तड़पती हुई आंखें
अब जाना ही होगा
ये स्वीकारती हुई आंखें
सिसकियों को समेटना है
अब आगे बढ़ना है
जीवन इसी का नाम है
फिर एक बार खुद को 
कोसती हुई आंखें
बेटी जो हूँ, सहना पड़ेगा
सबने सहा है
मैं भी सह लूंगी
अब कुछ ना कहुंगी
ना शिकायत करुगी
बाप की पगड़ी जो हूँ, 
उछलने नहीं दूंगी
अपनी जिद़ को दबा लुंगी
अब कुछ भी नहीं मांगुगी
खुद को समझा लेने में
अब भलाई है
नहीं तो जग हंसाई है
इस क्रोध से 
धधकती हुई आंखें
अब छोड़ दिया है
सब कुछ, दुसरो के लिए
अब दो परिवारों को
संवारती हुई आंखें
वो आंखें.... 


आपका, 
मेरा नज़रीया





घर बोलता है..

हाँ सच है घर बोलता है, 
पूछता है हाल चाल
जब महीनों बाद
देखता है आपको
खिलखिलाता है, 
घर की खिड़कियां, 
और उसमें लगे जाले, 
शिकायत करते हैं, 
और कहते हैं, 
बाबू थोड़ी जल्दी आया करो, 
कहते हैं पापा की उम्र बढ़
रही है, अब बुढ़े हो रहें हैं
तुम्हारी जरूरत है उनको
अब पहले की तरह सफाई
हर कोने में नहीं होती है
अम्मा भी थकने लगी है, 
मायूस रहती है 
सब सोचकर, 
कभी इस घर में 
भीड़ हुआ करती थी, 
शोर शराबा और खुशहाली थी, 
अब सब चले गए
पराए होने लगे हैं
छुटने लगा है सब
घर का हर कोने से
आवाजें आती है, बुलाती है
और दीवारें शांत रहती
ढाढस देती है, 
इस विश्वास के साथ की
वो अपना छोड़ेगा नहीं मुझे, 
आखिर घर के देवता यही तो है ं
कहाँ जाएगा आना तो पडे़गा
ये आदेश है मेरा, 
ये सारी बातें घर बोलता है। 

आपका, 
मेरा नज़रीया

छठ की महीमा- निर्माण से निर्वाण तक का सन्देश है छठ पूजा

क्षितिज, जल, पावक, गगन, समीर 


ये पंचतत्व से शरीर है 
इसी पंचतत्व की पूजा है (पानी मे रहकर आकाश की तरफ गर्दन किये हुए हाथ मे दीपक लेकर खुले हवाओं के बीच ज़मीन पर खडे रहकर प्रकृति की पूजा 

अंधकार से प्रकाश की तरफ उनमुख होने को प्रेरणा देता हुआ त्यौहार
(पहले शाम को अर्ध्य फिर सुबह )

दुःख और सुख मे सम्भाव रहने का सन्देश देता त्यौहार (शाम और सुबह दोनों मे सामान पूजा विधि )

व्रत की पूजा विधि मे केवल सात्विक भोजन करने की सीख होती है..

प्रसाद मे सभी प्रकार के उपलब्ध फल और सब्जी चढ़ाया जाता है..

इन्ही पंचतत्वों से शरीर का "सृजन" होता है..

इन्ही पंचतत्वों से और इनसे सृजित फल-सब्जी से शरीर का "पालन" होता है 

इन्ही पंचतत्वों मे "विलीन" हो जाना है

निर्माण से निर्वाण तक का सन्देश है छठ पूजा

सुख-दुःख, ख़ुशी -गम,उतार -चढाव,आदि -अंत, जय -पराजय,अंधकार -प्रकाश, जीवन -मरण, ये सभी द्वन्द जीवन के अकाट्य सत्य है जिनका प्रत्येक व्यक्ति के जीवन मे होना तय है...

छठ पूजा का स्वयं द्वय(dual )रूपों मे होना (संध्या अर्ध्य के बाद यह भरोसा होना कि सुबह की अर्ध्य भी नियत है) क्या यह अपने आप मे कम प्रमाण है कि अगर आप दुःख मे है तो सुख आएगा?
यह बताता है कि इन दोनों परिस्थितियों मे सम्भाव रहिये... दोनों ही परिस्थितिया नियति ने तय कर रखा है...आपका अपना मूल अस्तित्व ही एकमात्र सत्य है आदि भी वही है और अंत भी वही ....

दोनों एक ही अवस्था है...बर्फ-पानी-भाप के भौतिक प्रभाव अलग अलग हो सकते है परन्तु इनका आदि और अंत का मूल स्वरुप एक ही है। 


आपका, 
मेरा नज़रीया

अब पहले जैसा सुबह और शाम नहीं होता

अब पहले जैसा सुबह और शाम नहीं होती, 
वो पहली किरण के आने से पहले की, 
ठंडी-ठंडी हवा की सरसराहट नहीं दिखती, 
वो जेठ की दुपहरी की गर्माहट नहीं दिखती, 
वो पेड़ के नीचे  खटिया पर लेटे हूए, 
कड़क गर्मी की वो शीतलता नहीं दिखती, 
वहीं पेड़ के नीचे वो बड़े बुजुर्गों की ज्ञान की बातें
अब कहाँ चली गई? 
ना सुनने वाला कोई ना सुनाने वाला बचा है, 
ये कोन सा दौर है जो सब कुछ एक शीशे की सतह
सब कुछ उतारने की जद में है, 
कैसे एहसास कराओगे इन नये नस्लों को, 
बर्बाद होने से बचाओगे कैसे, 
ज़रा रुककर सोचो तो सही, 
क्या सच में अब पहले जैसा सुबह और शाम नहीं होती? 
या  सब कुछ वैसे ही है बस हमने देखना छोड़ दिया? 

आपका, 
©मेरा नज़रीया


भावनाएं

हाँ अब थोड़ा डरने लगा हुं 
सहमने लगा हूं
अपनो के लिए 
सब कुछ कर ना पाने का भाव
डराने लगा है
ऐसा नहीं कि ये पहली बार है
पहले भी ऐसा महसूस होता था
अब थोड़ा ज्यादा संजीदा 
होने लगा हुं 
क्या समय रहते सब कर पाऊंगा
जिम्मेदारी निभा पाऊंगा
बार-बार पुछता हूं खुद से
बढती उम्र के साथ
अपनों के खोने का डर 
सताने लगा है
होना तो है एक दिन
जानता हूँ, फिर भी
ना जाने ये
नहीं चाहता हूं मैं
खुद से ज्यादा इनका
ख्याल रहने लगा है
ये खुश रहें, कुछ अच्छा करें
चाहता हूँ, 
अच्छे संस्कार हो 

आपका, 
मेरा नज़रीया


बदलाव..


रिसोर्ट मे विवाह...
 नई सामाजिक बीमारी,
कुछ समय पहले तक शहर के अंदर मैरिज हॉल मैं शादियाँ होने की परंपरा चली परंतु वह दौर भी अब समाप्ति की ओर है!
अब शहर से दूर महंगे रिसोर्ट में शादियाँ होने लगी हैं!
शादी के 2 दिन पूर्व से ही ये रिसोर्ट बुक करा लिया जाते हैं और शादी वाला परिवार वहां शिफ्ट हो जाता है।
आगंतुक और मेहमान सीधे वहीं आते हैं और वहीं से विदा हो जाते हैं।
जिसके पास चार पहिया वाहन है वही जा पाएगा,
दोपहिया वाहन वाले नहीं जा पाएंगे। 
बुलाने वाला भी यही स्टेटस चाहता है।
और वह निमंत्रण भी उसी श्रेणी के अनुसार देता है। 
दो तीन तरह की श्रेणियां आजकल रखी जाने लगी हैं,
किसको सिर्फ लेडीज संगीत में बुलाना है !
किसको सिर्फ रिसेप्शन में बुलाना है !
किसको कॉकटेल पार्टी में बुलाना है !
और किस वीआईपी परिवार को इन सभी कार्यक्रमों में बुलाना है!!
इस आमंत्रण में अपनापन की भावना खत्म हो चुकी है!
सिर्फ मतलब के व्यक्तियों को या परिवारों को आमंत्रित किया जाता है!!

महिला संगीत में पूरे परिवार को नाच गाना सिखाने के लिए महंगे कोरियोग्राफर 10-15 दिन ट्रेनिंग देते हैं!

मेहंदी लगाने के लिए आर्टिस्ट बुलाए जाने लगे हैं
मेहंदी में सभी को हरी ड्रेस पहनना अनिवार्य है जो नहीं पहनता है उसे हीन भावना से देखा जाता है लोअर केटेगरी का मानते हैं

फिर हल्दी की रस्म आती है 
इसमें भी सभी को पीला कुर्ता पाजामा पहनना अति आवश्यक है इसमें भी वही समस्या है जो नहीं पहनता है उसकी इज्जत कम होती है ।
इसके बाद वर निकासी होती है 
इसमें अक्सर देखा जाता है जो पंडित को दक्षिणा देने में 1 घंटे डिस्कशन करते हैं 
वह बारात प्रोसेशन में 5 से 10 हजार नाच गाने पर उड़ा देते हैं ।
इसके बाद रिसेप्शन स्टार्ट होता है 
स्टेज पर वरमाला होती है पहले लड़की और लड़के वाले मिलकर हंसी मजाक करके वरमाला करवाते थे,,,,,, आजकल स्टेज पर  धुंए की धूनी छोड़ देते हैं 
 दूल्हा दुल्हन को अकेले छोड़ दिया जाता है 
बाकी सब को दूर भगा दिया जाता है 
और फिल्मी स्टाइल में स्लो मोशन में वह एक दूसरे को वरमाला पहनाते हैं 
साथ ही नकली आतिशबाजी भी होती है ।

स्टेज के पास एक स्क्रीन लगा रहता है 
उसमें प्रीवेडिंग सूट की वीडियो चलती रहती है 
जिसमें यह बताया जाता है की शादी से पहले ही लड़की लड़के से मिल चुकी है और कितने अंग प्रदर्शन वाले कपड़े पहन कर 
कहीं चट्टान पर 
कहीं बगीचे में 
कहीं कुएं पर 
कहीं बावड़ी में 
कहीं श्मशान में कहीं नकली फूलों के बीच अपने परिवार की इज्जत को नीलाम कर के आ गई है ।

प्रत्येक परिवार अलग-अलग कमरे में ठहरते हैं 
जिसके कारण दूरदराज से आए बरसों बाद रिश्तेदारों से मिलने की उत्सुकता कहीं खत्म सी हो गई है!!
क्योंकि सब अमीर हो गए हैं पैसे वाले हो गए हैं!
मेल मिलाप और आपसी स्नेह खत्म हो चुका है!
रस्म अदायगी पर मोबाइलों से बुलाये जाने पर कमरों से बाहर निकलते हैं !
सब अपने को एक दूसरे से रईस समझते हैं!
और यही अमीरीयत का दंभ उनके व्यवहार से भी झलकता है !
कहने को तो रिश्तेदार की शादी में आए हुए होते हैं
परंतु अहंकार उनको यहां भी नहीं छोड़ता !
वे अपना अधिकांश समय करीबियों से मिलने के बजाय अपने अपने कमरो में ही गुजार देते हैं!!

हमारी संस्कृति को दूषित करने का बीड़ा ऐसे ही अति संपन्न वर्ग ने अपने कंधों पर उठाए रखा है

मेरा अपने मध्यमवर्गीय समाज बंधुओं से अनुरोध है 
आपका पैसा है ,आपने कमाया है,
आपके घर खुशी का अवसर है खुशियां मनाएं,
पर किसी दूसरे की देखा देखी नहीं!

कर्ज लेकर अपने और परिवार के मान सम्मान को खत्म मत करिएगा!

जितनी आप में क्षमता है उसी के अनुसार खर्चा करिएगा
4 - 5 घंटे के रिसेप्शन में लोगों की जीवन भर की पूंजी लग जाती है !

दिखावे की इस सामाजिक बीमारी को अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित रहने दीजिए!

अपना दांपत्य जीवन सर उठा के, स्वाभिमान के साथ शुरू करिए और खुद को अपने परिवार और अपने समाज के लिए सार्थक बनाइए !

 धन्यवाद 🙏  
#फिजूलखर्ची #शादीसमारोह

देहावसान.... एक सच

पुरे हफ्ते की आपाधापी के बाद रविवार का दिन इस आशा के साथ कि दिनभर आराम करूँगा। सावन का महीना चल रहा है। लगातार बारीश से पुरा शहर अस्त व्यस्त...