वो आंखें..

वो आंखें... 

वो आंखों में, 
चित्कार है
कसक है, 
घर छुटने का ग़म है
पराया होने का मरम है
डर भी है, खौफ भी है
वापस ना आने का दर्द है
अपनों से उम्मीद है
फिर भी नाउम्मीद है
ढुढती हुई आंखे
कुछ देर रूक जाओ
इस आवाज़ के लिए
तरसती हुई आंखें
कभी मां, कभी बाप
कभी भाई तो कभी बहनों
को तलाशती आंखें
और इस तलाश में
माँ- बाप की वो बेबस आंखें
कराहती आंखें
सब कुछ एक साथ
सबको समाहित करती हुई आंखें
कितना क्रंदन है
कलेजे को भेदने वाली 
चित्कारती आंखें, 
ये तड़प है, 
एक पड़ाव खत्म होने का
और दुसरे के शुरूआत का, 
संशय से भरी हुई आंखें
तड़पती हुई आंखें
अब जाना ही होगा
ये स्वीकारती हुई आंखें
सिसकियों को समेटना है
अब आगे बढ़ना है
जीवन इसी का नाम है
फिर एक बार खुद को 
कोसती हुई आंखें
बेटी जो हूँ, सहना पड़ेगा
सबने सहा है
मैं भी सह लूंगी
अब कुछ ना कहुंगी
ना शिकायत करुगी
बाप की पगड़ी जो हूँ, 
उछलने नहीं दूंगी
अपनी जिद़ को दबा लुंगी
अब कुछ भी नहीं मांगुगी
खुद को समझा लेने में
अब भलाई है
नहीं तो जग हंसाई है
इस क्रोध से 
धधकती हुई आंखें
अब छोड़ दिया है
सब कुछ, दुसरो के लिए
अब दो परिवारों को
संवारती हुई आंखें
वो आंखें.... 


आपका, 
मेरा नज़रीया





घर बोलता है..

हाँ सच है घर बोलता है, 
पूछता है हाल चाल
जब महीनों बाद
देखता है आपको
खिलखिलाता है, 
घर की खिड़कियां, 
और उसमें लगे जाले, 
शिकायत करते हैं, 
और कहते हैं, 
बाबू थोड़ी जल्दी आया करो, 
कहते हैं पापा की उम्र बढ़
रही है, अब बुढ़े हो रहें हैं
तुम्हारी जरूरत है उनको
अब पहले की तरह सफाई
हर कोने में नहीं होती है
अम्मा भी थकने लगी है, 
मायूस रहती है 
सब सोचकर, 
कभी इस घर में 
भीड़ हुआ करती थी, 
शोर शराबा और खुशहाली थी, 
अब सब चले गए
पराए होने लगे हैं
छुटने लगा है सब
घर का हर कोने से
आवाजें आती है, बुलाती है
और दीवारें शांत रहती
ढाढस देती है, 
इस विश्वास के साथ की
वो अपना छोड़ेगा नहीं मुझे, 
आखिर घर के देवता यही तो है ं
कहाँ जाएगा आना तो पडे़गा
ये आदेश है मेरा, 
ये सारी बातें घर बोलता है। 

आपका, 
मेरा नज़रीया

वो आंखें..

वो आंखें...  वो आंखों में,  चित्कार है कसक है,  घर छुटने का ग़म है पराया होने का मरम है डर भी है, खौफ भी है वापस ना आने का दर्द है अपनों से ...